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तत्त्वानुशासन होते हुए भी ध्याता आत्मामे आलेखित - उत्कीर्ण अथवा प्रतिविम्बितजैसा प्रतिभासित होता है (१३३) । ध्येय पदार्थ तू कि ध्याता के शरीरमे स्थित रूपसे ही ध्यानका विषय किया जाता है इसीसे कुछ श्राचार्योंने इस द्रव्यध्येको 'पिण्डस्थध्येय' कहा है (१३४) ।
भावध्येयका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि जिस समय ध्याताध्यानके बलसे शरीरको शून्य वनाकर ध्येय स्वरूपमे आविष्ट होजानेसे अपनेको तत्सदृश बना लेता है उस समय उस प्रकारकी ध्यान - सवित्तिसे भेद- विकल्पको चट करता हुआ वह ही परमात्मा, गरुड अथवा कामदेव होजाता है ( १३५ - १३६ ) – इनमे से चाहे जिस ध्येयका भी ध्यान हो ध्याता उसी रूप वन जाता तथा क्रिया करने लगता है । यही भावध्येयका सार है? | ध्येय और ध्याता दोनोका जो यह एकीकरण है उसको 'समरसीभाव' कहते हैं । यही एकीकरण समाधिरूप ध्यान है, जो दोनो लोकके फलका प्रदाता है ( १३७ ) । इस द्विविध ध्येयके कथनका उपसहार करते हुए, एक बात वडे ही महत्वकी कही गई है, जो प्रस्तुतध्येयके मौलिक सिद्धान्तका निरूपण करती है, और वह यह कि 'कोई भी वाह्य वस्तु इस ध्यानका विषय बनाई जा सकती है' वशर्ते कि उसके यथार्थ स्वरूपके परिज्ञान और श्रद्धानके साथ राग-द्वेपादिकी निवृत्तिरूप मध्यस्थभाव जुडा हुआ हो ( १३८) । मध्यस्थभावका स्पष्टीकरण समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृहा, वैतृष्ण्य, प्रेशम श्रीर शान्ति जैसे शब्दो के द्वारा, उन्हे एकार्थक बतलाते हुए, किया गया हे (१३९) ।
इसके बाद व्यवहारनयकी दृष्टिसे ध्येय-विषयक जो सक्षिप्त कथन यहाँ किया गया है, उसे विस्ताररूपमे परमागमसे जानने की प्रेरणा करते हुए यह भी सूचित कर दिया गया है कि पच परमेष्ठियों के ध्यानमे
१ यहाँ परमात्मा, गरुढ तथा कामदेव के ध्यानका उल्लेख उदाहरण के रूपमें है, इस विषयका दूसरा कितना ही वर्णन एवं समूचन समरसीभावकी सफलताको प्रदर्शित करते हुए ग्रन्थमें आगे पथ १६७ से २१२ तक दिया है ।