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प्रस्तावना छह भेद जैनागममे प्रसिद्ध हैं। ग्रन्थमे उनका उल्लेख करते हुए 'जीव' के स्थानपर 'पुरुष' शब्दका प्रयोग किया गया है और उसे ध्येयतम बतलाया है (११८), जिसके दृष्टि-विशेषका स्पष्टीकरण व्याख्यामे किया गया है । साथ ही व्याख्यामे इन सबके लक्षणस्वरूपादिका सक्षिप्त सार भी दे दिया है। इन सब द्रव्योमे सबसे अधिक ध्यानके योग्य पुरुषात्माको बतलाया है, जो ज्ञानस्वरूप है; क्योकि ज्ञाताके होने पर ही ज्ञेय ध्येयताको प्राप्त होता है (११७,११८)। आत्माके ध्यानोंमे भी वस्तुन (व्यवहारध्यानकी दृष्टिसे) पचपरमेष्ठि ध्यान किये जानेके योग्य हैं, जिनमे चार-अर्हन्त-आचार्य-उपाध्यायसाघु-परमेष्ठी शरीरसहित होते हैं और सिद्धपरमेष्ठी शरीररहित (११९) तदनन्तर सिद्धात्मध्येयका स्वरूप तीन पद्योमे तथा अर्हदात्मक ध्येयका स्वरूप छह पद्योमे दिया गया है और अर्हन्तदेवके ध्यानका फल बतलाते हुए लिखा है कि मुमुक्षुओके द्वारा ध्यान किया गया यह अर्हन्तदेव वीतराग होते हुए भी उन्हें स्वर्ग तथा मोक्षफलका दाता है । उसकी वैसी शक्ति सुनिश्चित है (१२९) । आचार्यादि परमेष्ठियोके ध्येयस्वरूप-विषयमे इतना ही कहा गया है कि जो सम्यग्ज्ञानादिसे सम्पन्न हैं, जिन्हे सात ऋद्धियां प्राप्त हुई हैं और जो आगमोक्त लक्षणोसे युक्त हैं-क्रमश ३६,२५ तथा २८ मूलगुणोके धारक है-ऐसे आचार्य, उपाध्याय और साधु ध्यानके योग्य हैं (१३०)। ___ इस प्रकार नाम आदिके भेदसे चार प्रकारके ध्येयका वर्णन समाप्त कर फिर प्रकारान्तरसे यह कहा गया है कि 'अथवा 'द्रव्य' और 'भाव' के भेदसे वह ध्येय दो प्रकारका अवस्थित है' (१३१) ।
इस द्विविध-ध्येय-प्ररूपणमे स्वात्मासे भिन्न जितने भी बाह्य पदार्थ हैं, चाहे वे चेतन हो या अचेतन, सब 'द्रव्यध्येय' की कोटिमे स्थित हैं
और 'भावध्येय'मे उन सब ध्यान-पर्यायोका ग्रहण है जिनमे ध्याता ध्येयसदृश परिणमन करता है (१३२) । जव द्रव्य ध्येयका रूप ध्यानमे पूरी तरह स्थिरताको प्राप्त होता है तब वह ध्येयके वहां मौजूद न