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________________ तत्त्वानुशासन वैसे ही सर्वसमयवर्ती है अर्थात् प्रत्येक द्रव्यका उक्त सामान्यस्वरूप प्रतिक्षण रहता है और उसीसे द्रव्यका द्रव्यत्व वना रहता है । इस तत्त्वको ध्यानका विषय बनानेकी प्रेरणा की गई है ( ११० ) । साथ ही तत्त्वको 'याथात्म्य' के समकक्ष रखकर उसके स्वरूपका निर्देश किया गया है ( ११९ ) । द्रव्यको अनादिनिधन वतलाया है, इससे कोई द्रव्य कभी उत्पन्न नही हुआ और न कभी नाशको प्राप्त होगा । हाँ, द्रव्यमे जो स्वपर्याय है वे जलमे जल - कल्लोलोको तरह ऊपरको उठती तथा नीचेको बैठती रहती हैं (११२), यही द्रव्यका प्रतिक्षण स्वाश्रित उत्पादव्यय है, जो उसके लक्षरण का अग बना हुआ है । इसके बाद द्रव्यका अपने त्रिकालवर्ती गुण- पर्यायोके साथ और गुण पर्यायोका अपने सदा घोव्यरूपसे स्थित रहनेवाले द्रव्यके साथ अभेद प्रदर्शित किया गया हैकहा गया है कि जो वे हैं वही यह द्रव्य है और जो यह है वही वे गुणपर्यायें है ( ११३) । द्रव्यमे गुण सहवर्ती और पर्यायें क्रमवर्ती हैं । द्रव्य इन गुरण पर्यायात्मक है और ये गुण-पर्यायें द्रव्यात्मक हैं- द्रव्यसे गुणपर्याय जुदे नही और न गुण- पर्यायोसे द्रव्य कोई जुदी वस्तु है ( ११४) । इस प्रकार यह 'द्रव्य' नामकी वस्तु जो प्रतिक्षण स्थिति, उत्पत्ति और व्यय रूप है तथा प्रनादिनिधन है वह सव यथावस्थितरूपमें ध्येय हैध्यान का विषय है ( ११५) । ७० भावध्येयके निरूपण मे केवल इतना ही कहा गया है कि जिस द्रव्यमे जो अर्थ पर्यायें तथा व्यंजनपर्यायें और जो मूर्तिक तथा अमूर्तिक गुण जहाँ जैसे अवस्थित हैं उनका वहाँ उसी रूपमे ध्याता चिन्तन करे ( ११६) । अर्थ पर्यायें सब द्रव्योंमे होती हैं, जब कि व्यजनपर्यायें केवल जीव तथा पुद्गलद्रव्योसे ही सम्बन्ध रखती हैं । ये व्यजनपर्यायें स्थूल, वचनगोचर प्रतिक्षण- विनाशरहित तथा कालान्तरस्थायी होती हैं, जब कि अर्थ पर्यायें सव सूक्ष्म तथा प्रतिक्षणक्षयी होती हैं । द्रव्य के जीव, पुद्गल, धर्म, अवर्म, आकाश और काल ऐसे मूल
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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