________________
प्रस्तावना
ध्येयके दूसरे चार प्रकार नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे बतलाये गये हैं और यह सूचना की गई है कि प्रात्मज्ञानी इन सबको अथवा इनमेसे चाहे जिसको अपनी इच्छानुसार ध्यानका विषय (ध्येय) बना सकता है (६६) । वाच्यके वाचकको 'नाम,' प्रतिमाको 'स्थापना, गुण-पर्यायवान्को द्रव्य,' और गण तथा पर्याय दोनोको 'भाव' ध्येय कहते हैं (१००), ऐसी इनके स्वरूपकी संक्षिप्त सूचना करने के मनन्तर नाम ध्येयके निरूपणमे अह, असि आ उ सा, अ इ उ ए मो, णमो अरिहताण नामक सप्ताक्षर महामत्रके ध्यानकी विधि-व्यवस्था की गई है। हृदयमे ऐसे अष्ट दल-कमलको ध्यानेकी प्रेरणा की गई है जो पृथ्वीमहलके मध्यमे स्थित है, जिसके दल क्रमश आठ वर्गोसे--स्वर, क, च, ट, त, प, य, श वर्गके अक्षरोसे-पूरित हो, कणिकामे जिसकी 'अहं' नाम अधिष्ठित हो, जो गणघर वलयसे युक्त और 'ह्री' वीजाक्षरकी तीन परिक्रमामओसे वेष्ठित हो। साथ ही अकारसे हकार-पर्यन्त अक्षरोको भी, जो अपनेअपने मण्डलको प्राप्त हुए परमशक्तिशाली मत्र हैं, ध्येय बतलाया गया है और उन्हें दोनो लोकोंके फलप्रदाता लिखा है (१०१-१०७) । अन्तमे नामध्येयके प्ररूपणका उपसहार करते हुए लिखा है कि 'इन अर्हन्मत्रपुरस्सर मत्रोको आदि लेकर और भी मत्र हैं जिन्हें मात्रिक ध्याते हैं, उन सबको भी स्पष्टरूपसे नामध्येय समझना चाहिये (१०८)। ऐसे बहुत से मत्र आर्ष, ज्ञानार्णव योगशास्त्र तथा विद्यानुशासनादि ग्रन्थोसे जाने जा सकते हैं।
स्थापना-ध्येयके निरूपणमे केवल इतना ही कहा है कि जिनेन्द्रके प्रतिबिम्बोको, चाहे वे कृत्रिम हो या अकृत्रिम, उस रूपमे ध्याना चाहिये जिसरूपमें उनका आगममे वर्णन है (१०६)।
द्रव्यध्येयका निरूपण करते हुए सबसे पहले द्रव्य-सामान्यको ध्यानका विषय बनानेकी प्रेरणा की गई है। द्रव्यका सामान्य स्वरूप उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप है, वह जैसे एक द्रव्यका स्वरूप है वैसे ही सब द्रव्योका स्वरूप है और जैसे वह एक समयवती है