SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वानुशासन नयाश्रित स्वरूपावलम्बी ध्यानको 'अमिन्नध्यान और व्यवहार-नयाश्रित परावलम्बी ध्यानको निन्नध्यान' कहते हैं। भिन्नध्यानमै जिसका अभ्यास परिपक्व हो जाता है वह निराकुलतापूर्वक अभिन्नव्यानमे प्रवृत्त होता है (६७)। इस पिछले वाक्यमे वडे महत्वको सूचना की गई है, जिसमें ध्यानका राजमार्ग स्थिर होता है और वह यही है कि पहले व्यवहार-नयाश्रित भितघ्यानके अम्पासको बढाया जाय, तत्पश्चात् निश्चयनयाधित अभिन्नध्यानके द्वारा यात्माके स्वरूपमे लीन हुमा जाय। भिन्नध्यानमे परमात्माका ध्यान सर्वोपरि मुख्य है, जिसके सकल और निष्कन ऐमे दो भेद है--कल परमात्मा प्रहन्त और निप्पल परमात्मा सिद्ध कहलाते हैं। इसके बाद ग्रन्यमे योगके माठ अगोमेसे 'ध्येय' अगका विषय विशेषरूपसे प्रारम्भ होता है और उसमे पहले ही भिन्नव्यानके चार ध्येयोको सूचना की गई है, जिनके नाम हैं माज्ञा, अपाय विपाक और लोकसस्थान । माथ ही इनके आगमानुसार एकाग्रचित्त से चिन्तनकी प्रेरणा की गई है (६८) । मागमानुसार ये ध्येय-दृप्टिसे प्रकल्पित हुए धय॑ध्यानके चार भेद हैं, जैसा कि "प्राज्ञा-पाय-विपाकसस्थान विचायाय (स्मृति समन्वाहार ) धर्म्यम्' इस तत्त्वार्थसूत्र (e-३६) से जाना जाता है, और इसलिये धर्म्यध्यानके जिन प्रकारोका उल्लेख ग्रथमे पद्य ५१ से ५५ तक किया गया है उनसे ये चार भेद भिन्न हैं, जो भागम-परम्पराके अनुसार कहे गये हैं, जिसे 'आम्नाय' भी कहते हैं । और इसलिये इनका अनुष्ठान जन माम्नायके अनुसार ही होना चाहिये । मूलमे इनका कोई स्वरूप नहीं दिया गया,व्याख्यामें भागमानुकूल इनके स्वरूपको कुछ सूचना की गई है और विशेष जानकारीके लिये मूलाचार, पार्षादि मागम-ग्रथो तथा तत्त्वार्थ राजवातिकादि टीकाओको देखनेकी प्रेरणा भी कर दी गई है। १. तदाशापाय-सस्थान-विपाक-विचयात्मकम । चतुर्विकल्पमाम्नातं ध्यानमाम्नायवेदिभिः ॥ (आर्ष २१,१३४) -
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy