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प्रस्तावना
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जिससमय नाना आलम्बनोमे वर्तनेवाली चिन्ताको प्रत्याहृत करके - सब आलम्बनोसे खीचकर — केवल एक ही आलम्बनमे स्थिर करता है - अन्यत्र जाने नहीं देता - उस समय उसके 'चिन्तं काग्र निरोध' नामका योग बनता है, जिसे प्रसख्यान, समाधि तथा ध्यान भी कहते हैं, और जो इष्टफलका प्रदाता होता है ( ६०-६१ ) । तीसरी यह कि निरोधका अर्थ जब 'अभाव' लिया जाता है तो वह चिन्तान्तरके- दूसरी चिन्ताओके - अभावरूप होता है, न कि चिन्तामात्र के अभावरूप, श्रौर इसलिये एक चिन्तात्मक होता है, अथवा चिन्ताओंसे रहित स्वस वेदनरूप कहा जाता है । शुद्धआत्मामे जो चिन्ताका नियंत्रण अथवा अन्य चिन्ताओका अभाव है वह सब स्वसवेदनरूप ध्यान है ( ६४-६५) ।
जो श्रुतज्ञान उदासीन - राग-द्वेपसे रहित उपेक्षामय - यथार्थ और अति निश्चल ( एकाग्र ) होता है वह ध्यानकी कोटिमे आजाता है, उसे स्वर्ग तथा मोक्षफलका दाता लिखा है और उसका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त बतलाया है (६६), जो कि एक विषयमे उत्तमस हनन वालोकी दृष्टिसे निर्दिष्ट हुआ है— हीनसहननवालोका एक ही विषयमे लगातार ध्यान इतने समय तक नही ठहर सकता और इसलिये वह और भी कम कालकी मर्यादाको लिये हुए होता है ।
ध्यान शब्दके निरुक्तिपरक भयको उपस्थित करते हुए, जिसके द्वारा ध्यान किया जाता है, जो ध्यान करता है, जिसमे ध्यान किया जाता है अथवा जो पाति है - ध्येय-वस्तुमे परम स्थिरबुद्धि है-उस सबको ध्यान बतलाया है (६७); फिर इनका युक्तिपुरस्सर स्पष्टीकरण करते (६८,७०,७१ ) एव ' ध्याति' का लक्षण देते हुए ( ७२ ) उपसहाररूपमे कहा गया है कि इस प्रकार निश्चयनयकी दृष्टिसे यह कर्ता, करण, कर्म, अधिकरण और फलरूप सब ध्यान ही है (७३) । निश्चयनयसे पट्कारकमयी आत्मा ही ध्यान है (७४) और यह ठीक है, क्योकि निश्चयनयका स्वरूप ही 'अभिन्नक' - कर्मादिविषयो निश्चयो नय' इस प्रथवाक्य ( २९ ) के अनु