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तत्वानुशासन
सामग्रीके भेदसे ध्याताओ और उनके ध्यानोको तीन-तीन भेदोंमे विभक्त किया गया है-उत्तम, मध्यम, जघन्य । उत्तमसामग्रीके योगसे ध्यातामे उत्तमध्यान, जघन्यसामग्री के योगसे जघन्य और मध्यमसामग्रीके योगसे मध्यम ध्यान बनता है (४८,४६) । ध्यानानुरूप ही ध्याताको उत्तम, मध्यम तथा जघन्य कहा गया है । साथ ही यह प्रतिपादित किया है कि विकल-श्रुतज्ञानी भी धर्म्यध्यानका ध्याता होता है, यदि वह स्थिरमनवाला हो (५०)। इससे ध्यानकी सामग्रीका कितना महत्व है यह स्पष्ट जाना जाता है। ____इसके बाद धर्म के लक्षणादि-भेदसे धर्म्यध्यानकी प्ररूपणा कीगई हैधर्मका जो लक्षण या स्वरूप जिस समय चिन्तनमें उपस्थित हो उस समय ध्यानको उसी प्रकारका धर्म्यध्यान बतलाया गया है। सबसे पहले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय धर्मको लिया गया है, दूसरे, मोह-क्षोभसे विहीन आत्माका जो परिणाम उसे धर्मरूपमे ग्रहण किया गया है,तीसरे, वस्तुके स्वरूप-स्वभाव अथवा याथात्म्यको धर्म बतलाया है, और चौथे, उत्तम क्षमादिरूप दशलक्षण-धर्मका उल्लेख किया गया हैं (५१-५५) ।
ध्यानका लक्षण और फल बतलाते हुए,परिस्पन्द-रहित-एकाग्रचिन्तानिरोध को ध्यानका लक्षण प्रतिपादित किया है और उस ध्यानको सचित कोंकी निर्जरा तथा नये कर्मोके पासव-द्वारको रोकनेरूप सवरका हेतु निर्दिष्ट कर निर्जरा तथा सवर दोनोको ध्यानके फल सूचित किया है(५६)। तदनन्तर ध्यानके लक्षणमें प्रयुक्त हुए एक, अन,चिन्ता और निरोध शब्दोंके वाच्यार्थको अच्छे सुन्दर ढगसे स्पष्ट किया है (५७-६५)। इस स्पष्टीकरणमे दो एक बातें खास महत्वकी कही गई हैं ---एक तो यह कि ध्यान के लक्षण में 'एकाग्न' का ग्रहण व्यग्रताकी निवृत्तिके लिये है । वस्तुत. ज्ञान ही व्यग्न-विविध अग्नों-मुखो अथवा आलम्बनोंको लिये हुए होता है, ध्यान नहीं। ध्यान तो एकमुख तथा एक आलम्बनको लिये हुए एफान ही होता है (५९)। दूसरी यह कि विशुदबुटिका धारक योगी