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प्रस्तावना
एवं क्षेत्रके साधकोको लक्ष्यमे लेकर इस ग्रन्थमे धबध्यानका कथन किया जायगा (३६) । और इसलिये इस गन्यका मुख्य लिषय धर्म्यध्यान है, ऐसा समझना चाहिये।
धर्म्यध्यानके इच्छुक योगीको ध्याता, ध्येय, ध्यान, ध्यानफल, ध्यानस्वामी, ध्यानक्षत्र, ध्यानकाल मोर ध्यानावस्था इन आठका स्वरूप जानना चाहिये (३७), जो कि योगके साधनरूप उसके माठ मग हैं (४०)।' सक्षेपमे इन्द्रियो तथा मनका निग्रह करनेवाला 'ध्याता' कहलाता है, यथावस्थितवस्तु 'ध्येय' कही जाती है, एकाग्रचिन्तनको 'ध्यान' कहते हैं, निर्जरा तथा सवर ध्यानके फल हैं (३८) और जिस देश, काल तथा अवस्था (आसन-मुद्रादिक) मे ध्यानकी निर्विघ्नसिद्धि होती है वही ध्यानके लिये ग्राह्य क्षेत्र, काल, तथा अवस्था है (३६), ऐसा निर्दिष्ट करते हुए ग्रन्थमे आगे इन अगोका कुछ विवरण देनेकी सूचना की गई है (४०) । तदनुसार सबसे पहले ध्याताका विशेष लक्षण दिया है, जिसके विशेषणोमे यम-नियमादिरूप धर्माचरणकी अनेक कोटियोको शामिल किया गया है (४१-४५)।
ध्यानके स्वामी अप्रमत्त, प्रमत्त, देशसयत, (अविरत) सम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानवर्ती जीवोको बतलाया है (४६) और इसलिये प्रथ-- मके तीन गुणस्थानवर्ती मिथ्यादृष्टि आदि जीव धर्म्यध्यानके अधिकारी नही, यह समझना चाहिये। धर्मध्यानके मुख्य और उपचारके भेदसे दो भेद किये गये हैं, जिनमे मुख्य धर्मध्यान अप्रमत्त-गुणस्थानवतियोके और औपचारिकघHध्यान शेष तीनके बनता है (४७), इस भेददृष्टिसे दोनो धर्म्यध्यानोका स्वामिभेद भी स्पष्ट हो जाता है ।। - १ पातन्जल-योगदर्शनमें योगके जो आठ अग यम, नियम, आसन, प्राणायामा प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधिके रूपमें पसिद्ध हैं उनसे ये आठ अग प्रायः भिन्न जान पड़ते हैं। परन्तु इनके स्वरूपमें उन सबका मुख्य-गौण-दृष्टि तया ‘स्वरूपभेदादिके साथ समावेश हो जाता है, जैसे यम-नियमका धय॑ध्यान तथा संवरमें, ध्यान-समाधिका ध्यानमें, आसनादिका ध्यानको अवस्था एवं पक्रियामें अन्तर्भाव होता है। .