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________________ प्रस्तावना तथा अन्य जैन गन्थोमे उपलब्ध होता है । बन्धके मुख्यत अथवा सक्षेपतः तीन हेतु बतलाये हैं-मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचरित्र -तीनोंके लक्षण देकर उनमें मिथ्यादर्शनरूप मोहको चक्रवर्ती राजा, मिथ्याज्ञानको मोहका मत्री और अहंकार-ममकारको, जो कि मोहके पुत्र हैं, मोहकी सेनाके नायक बताया है। साथ ही यह सूचित किया है कि इन दोनों के आधीन ही मोहकी सेनाका चक्रव्यूह दुर्भेद बना हुमा है (८-१३)-ममकार और अहंकार यदि न हो तो फिर मोहकी सेनाको जीतना अथवा उसके चक्करसे निकलना कुछ भी कठिन नहीं रहता। ममकार-अहकारसे राग-द्वेषकी, राग-द्वपसे क्रोधादि कषायो तथा हास्यादि नोकषायोकी उत्पत्ति होकर किस प्रकार कर्मों के बन्धनादिरूप संसारचक्र चलता है और यह जीव उसके चक्करमे पडा सदा भ्रमता ही रहता है, इसकी सूचना करते हुए (१६-१६) भन्यात्माको यह हितकर उपदेश दिया है कि 'हे मात्मन् । तू इस दृष्टिविकाररूप मोहको, मिष्याज्ञानको पौर ममकार तथा महकारको अपना शत्र समझ और इनके विनाशका उद्यम कर। इन मुख्य बन्ध-हेतुओका क्रमश. नाश हो जाने पर शेष राग द्वेषादि बन्ध-हेतुओंका भी विनाश हो जायगा और १. एक अन्य अन्य के निम्न पध में, जिसे विद्यानन्दाचार्यने युक्त्यनुशासन (पच नं० २२) की टीकामें उद्धृत किया है और जो सम्भवत स्वामी समन्तभद्के तत्वानुशासनका पद्य नान पड़ता है, ममकार-अहकारको मोहराजा के सचिव (सहायक या मन्त्री) सचित किया है और बतलाया है कि मोहराना का राग-द्वेष-काम-क्रोधादिरूप जितना भी परिकर--परिवार है उस सवको ये ममकार और अहंकार दोनों निरन्तर परिपुष्ट करनेमें तत्पर रहते हैं। और इसलिये यदि इनको जीत लिया जाय या मार दिया जाय तो मोहका सारा परिवा पोषण-विहीन होकर क्षीणता को प्राप्त हो जाय और तब मोहका जीतना कुछ भी दुष्कर न रहे ममकाराऽहकारी सचिवाविव मोहनीयराजस्य । रागादि-सकल परिकर-परिपोषण-तत्परौ सततम् ।।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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