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तत्त्वानुशासन सार जिनसेन-वासवसेनके बाद ही अर्चन-स्मरण किया गया है, जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है -
जिनसेन यजे भक्त्या सेनं वासवपूर्वकम् ।।
रामसेनमथाप्यन्यानष्टधार्चे सपर्ययया ॥१६॥ यहां इन गुर्वावलियोंके सम्बन्धमे एक वात खास तौरसे प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि कभी-कभी इनमे दूसरे सघ, गण-गच्छादिके आचार्यों को भी अपनी भक्ति प्रादिके वश शामिल कर लिया जाता है, जैसे कि उक्त लाडवागडगणको गुर्वावलीमे सेनगणके प्राचार्य समन्तभद्रादिको, देवसपके भाचार्य अकल कादिको, पुन्नाटसपके आचार्य अमितसेनजिनसेनादिको अपने गणमे शामिल किया गया है। इससे वे लाडबागडगणकी उत्पत्तिके बाद उस गणमे उत्पन्न हुए अथवा उनका उन नामोके 'पूर्वाचार्योसे भिन्न व्यक्तित्व था ऐसा प्राशय नहीं है, बल्कि यह आशय है कि लाडवागडगणने उन पूर्वगुरुवोको भी अपने गणके गुरुरूपमे अपनाया है । और इसलिये काष्ठासधेके सुप्रसिद्ध विद्वान रामसेनका यदि संघके नन्दीतट, लाट तथा लाडवागड जैसे गच्छोमे अलग-अलग उल्लेख पाया जाता है तो इतने मापसे वे एक दूसरेसे भिन्न नहीं हो जाते, उनका व्यक्तित्व एक ही समझना चाहिये।
इस प्रकार तत्वानुशासनके कर्ता रामसेनका गण-गच्छादिकी, गुणादिकी और ख्यातिकी दृष्टिसे यह विशेप परिचय है, जो उपलब्ध सामग्रीपरसे अपने को प्राप्त हो सका है। हो सकता है कि इसके अवधारण मे कही कोई त्रुटि रही हो, जिसका सुधार अनुपलब्ध विशेष सामग्रीके प्रकाशमे आने पर ही हो सकेगा। ऐसे जटिल विपयोंके निर्णयमे साधनसामग्रीकी विरलता बहुत ही खटकती है। समाजका ध्यान अपने -लुप्तप्राय साहित्य को, जो विपुलमात्रामे उपेक्षित पड़ा हुआ है, खोज कर प्रकाशमे लानेकी ओर बहुत ही कम जान पड़ता है। इसीसे अनेक गुत्थियोके सुलझानेमे बहुत कुछ परिश्रम उठाना पडता है और फिर भी वे पूरी तौरपर अथवा यथेष्टरूपमे सुलझ नहीं पाती।
आशा है तत्वानुशासनकार रामसेनके समय और व्यक्तित्वादिके