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प्रस्तावना सागरावगाहनरूप विद्यारसिकताका द्योतक है और तीसरा उन्हें लाटगच्छरूप माकाशका चन्द्रमा प्रकट करता है। अन्तिम विशेषणसे यह ध्वनित होता है कि रामसेन वासवसेनके दीक्षित शिष्य नहीं थे। दीक्षाका विषय उनका दूसरे गच्छ अथवा संघसे सम्बन्ध रखता है, जिसे लाट गच्छ कहो या काष्ठासघ कहो। विरुदावलीके पूर्वकथनानुसार वासवसेनने जो कि हरिवंशकार जिनसेनके पट्टान्वयके एक बहुत बड़े विद्वान एवं अथकार थे, पुत्र-पौत्रके व्यामोहको छोडकर वृद्धावस्थामें महावतका भार ग्रहण किया था । इससे ऐसा मालूम होता है कि वे सभवत अपने अनुरूप कोई अच्छा प्रौढ शिष्य उत्पन्न नहीं कर सके और इसलिये उन्होने काष्ठासपी रामसेनकी विद्वत्ता, सच्चरिता और क्षमता आदि पर मुग्ध होकर उन्हें ही अपने पट्टका भी भार सुपुर्द किया है। इसीसे रामसेन यहाँ दो गच्छों अथवा सघोंके सगमरूपमे स्थित हैं और वे ही रामसेन जान पडते हैं जिनका ऊपर काष्ठासघी नागसेनके शिष्यरूपमे उल्लेख किया गया है। रामसेनसे आगे दो पट्ट चले हैं। पहले पट्टमें नेमिसेनादिक हुए हैं । दूसरे पुन्नाटगच्छके पट्टपर रामसेनकी शिष्यपरम्परामें जयसेन सिद्धसेन, केशवसेन, महीन्द्रसेन, अनन्तकीर्ति, विजयसेन और चारित्रसेन हुए हैं। ऐसा उक्त विरुदावलीसे उनकी कुछ कृतियो-सहित जाना जाता है। साथ ही, यह भी मालूम होता है कि चारित्रसेनके समयमे पुन्नाटगच्छ को भडारमे स्थित स्थापित कर वहां समाप्त कर दिया गया और लाटवर्गट (लाडवागड) नामका प्रथितगच्छ पृथ्वीपर प्रकट हुआ२--प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ। ____ 'काष्ठासपके लाडवागडगणकी गुर्वावली' नामसे जो गुर्वावली अनेकान्तकी गतकिरण ३ मे प्रकाशित हुई है। उसमें जिन रामसेनका उल्लेख है वे भी उक्त रामसे न ही हैं और उनका विरुदावलीके क्रमानु
१. "ततश्च पुत्र-पौत्र-व्यामोई विहाय येन वृद्धत्वे हद्बतमारमादाय शानाववरणकर्म विल्जित्य सरस्वती प्रत्यक्षी चकार।" (विरुदावली)
२. यैश्च (चारित्रसेन.) लाटवर्गटदेशे प्रतिबोध विधाय मिथ्यात्वमलस्य निरसनं चक्र ततः पुन्नाटगच्छ इति भाण्डागारे स्थिते लोके लाटवर्गटनामाभिधान पृथिव्यां प्रथित प्रकटीबभूव । (विरुदावली)