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तत्वानुशासन
दलितविकार' जैसे विशेषणोके साथ उल्लेखित किया है । और इससे वे अपने समयके एक असाधारण-कोटिके महान विद्वान्, प्रतिभावान्, शुद्धहृदय एव सच्चरित्र साधु प्रतीत होते हैं। अत: श्रुतसागरसूरिने सुत्तपाहुड (सूत्रप्राभूत) द्वितीयगाथाकी टीकामे जिन रामसेनको अहंदल्यादि. सोलह महान आचार्योंके नामोंके साथ-"प्रथमानपूर्वमागज्ञा." पदके द्वारा आचाराङ्ग और पूर्वोके एकदेशज्ञाता (श्रुतकेवलिदेशीय) लिखा है? वे ये ही रामसेन जान पड़ते हैं-इनसे अर्थात् तत्त्वानुशासनके कती रामसेनसे भिन्न दूसरे कोई रामसेन प्रतीत नहीं होते-इतनी विद्वत्ताके दूसरे किसी रासेमनका उपलब्ध जैनसाहित्यमे कही कोई पता नहीं हैं। ____ अब मैं पुन्नाटश्सघके रामसेनको लेता हूं, जिन्हे लाडवागडसघकी एक 'विरुदावली'२मे पुन्नाटगच्छीय वासवसेनाचार्यका पट्ट-शिष्य लिखा हैं । विरुदावलीका वह उल्लेख इस प्रकार है :
"श्रीपुन्नाट-गच्छ-विपुलगगनोद्योतन-दिवाफरषीवासवसेनाचार्याणा, तत्पट्टाल फार-हार-निविकार-कर्मसिद्धान्तपारावार-विगाहनरसिक-श्रीलाटगच्छव्योमविमाफरश्रीरामसेन भट्टारकाणाम् ।"
इसमे जिन रामसेनको पुन्नाटगच्छके सूर्य वासवसेनका पट्टाल कारहार सूचित किया है उनके तीन विशेषण दिये हैं-एक 'निर्विकार', दूसरा कर्मसिद्धान्तपारावरविगाहनरसिक' और तीसरा 'लाट-गच्छव्योमप्रभाविभाकर'। पहला उनकी निर्दोषचरित्रताका, दूसरा कर्मसिद्धान्त
१. "अहंदवली माधनन्दी धरसेम पुपदन्तः भूतबलि. जिनचन्द्र' कुन्दकुन्दाचार्य उमास्वामी समन्तमद्रस्वामी शियकोटि. शिवायन पून्यपादः एलाचार्यः वीरसेन जिनसेना नेगिचन्द्रः रामसेनश्चेति प्रथमान-पूर्वभागशः।"
२ यह 'विरुदावली' दिल्लीके पचायती जैन मन्दिरके एक बहुत बड़े गुटकेसे पं० परमानन्दजी शास्त्रीको प्राप्त हुई है, जो कुछ अशुद्ध जान पड़ती है। इसमें ऐतिहासिक घटनाओंका बहुत बड़ा समावेश है, जिनकी प्री नाच-पड़ताल होकर समयादिकके स्पष्टीकरणपूर्वक यह पट्टावली शीघ्र प्रकाशित की जानी चाहिये । इसकी दूसरी प्रति उदयपुरके शारमभण्डारमें यताई जाती है।