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प्रस्तावना
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स० ७५३ से पूर्व तो क्या शक स० ७५३ के पूर्व भी नही बनता, क्योकि शक सं० ७५६ मे तो उनके गुरु जिनसेनने जयधवलाटीकाको पूरा किया था, उसके बाद महापुराणके कार्यको विशेषत अपने हाथमे लिया था, जिसे वे अधूरा छोडकर स्वर्गवासी होगए और उसको पूरा करनेका भार अपने प्रमुखशिष्य गुणभद्रपर रखगये । गुणभद्रने उसे शक सवत् ८०० के आस-पास किसी समय पूरा किया मालूम होता है, क्योकि महापुराणके उत्तरार्धरूप उत्तरपुराणके अन्तमे जो पूजा-प्रशस्ति गुणभद्रके शिष्य लोकसेन द्वारा लगाई गई है उसमे उसका समय शकसं० ५२० दिया है । ऐसी स्थितिमे काण्ठास घसे दोसो वर्षबाद माथुरसंघकी उत्पत्तिका श्राशय यही निकलता है कि वह शककी १० वीं शताब्दी के प्रायः प्रथमचरण में उत्पन्न हुआ है और इसलिये उसके सस्थापक रामसेनाचार्य तत्त्वानुशासनके कर्ता नही हो सकते। यह दूसरी बात है कि २०० वर्षका उक्त अन्तरालकाल ही गलत हो ।
यहाँ इस माथुर-सघके सम्बन्धमे इतना और भी जानलेनेकी जरूरत है कि यह काष्ठासघकी शाखारूप नन्दीतट आादि चार गच्छोमेसे एक गच्छ है जिसका गण तथा सघके रूपमे भी उल्लेख मिलता है, और उस माथुरसघसे भिन्न जान पडता है जिसमे अमितगति आदि आचार्य हुए हैं, क्योकि अमितगति अपने सुभाषितरत्नसन्दोह आदि ग्रन्थो मे न तो काष्ठास घसे अपना सम्वन्ध जोड़ते हैं और न रामसेनको अपने गुरुवोकी श्रेणिमे ही स्थान प्रदान करते हैं-- धर्मपरीक्षामे उनके गुरुवोकी पूर्वसीमा देवसेनके गुरु जिनसेन तक पाई जाती है ।
"हस्तलिखित संस्कृत प्रन्थोकी खोज-विषयक पिटर्सन साहबकी ४ थी रिपोर्टपरसे बहुत वर्ष हुए मैंने यह नोट किया था कि 'रामसेनके शिष्य देवसेनका जन्म स० ६५१ मे हुआ है ।' हालमे विशेष जानकारीके लिये उस रिपोर्टको प्राप्त करनेका प्रयत्न किया गया परन्तु वह दिल्लीसेबाहर चले जानेके कारण प्राप्त नही होसकी, तब मैंने डा० ए० एन० उपाध्याय और बाबू छोटेलालजी से उसे देखकर उचित सूचना करनेकी