________________
तत्त्वानुशासन इस सघके आचार्य प्राय नन्दि, चन्द्र, कीति, मूषण नामान्त होते हैं। सिंह संघके नामान्त सिंह, कुम, अनव तया सागर और देवसघके नामान्त देव, दत्त, नाग तथा तु ग वतलाये गये हैं१ । मत' इन दोनो सघोमे भी इनका सभव नहीं है। कठास घ, माथुरसघ पोर पुन्नाटसंघकी गुर्वावलियो-पट्टावलियो तथा अन्यप्रशस्तियोंमे गुरुवोंके सेनान्त नाम जरूर पाये जाते हैं और रामसेन नामके गुरुवोका भी उल्लेख है अतः उन पर विशेप विचार एव जांच पडतालका कार्य आवश्यक हो जाता है।
इस विषयमे सबसे पहले उस माथुरसघको लिया जाता है जिसके संस्थापकका नाम रामसेनाचार्य बहुत कुछ प्रसिद्धिको प्राप्त है-अनेकाऽनेकग्नन्थप्रशस्तियोमे भी जिसका उल्लेख है और जिसकी उत्पत्तिका समय देवसेनने दर्शनसारमे वि० स० ६५३ सूचित किया है । यह समयअपने रामसेन-समयके निकट पडनेके कारण इन्ही माथुर संघ-सस्थापक रामसेनको तत्त्वानुशासनका कर्ता मानलेनेका सहसा मन होता है। परन्तु समय पर गभीरताके साथ विचारपूर्ण दृष्टि डालनेसे वह ठीक प्रतीत नहीं होता, क्योकि दर्शनसारमे उसे काष्ठासंघसे २०० दोसो वर्ष वाद उत्पन्न हुआ बतलाया है और काष्ठासघकी उत्पत्ति उन कुमारसेनके द्वारा वि० स० ७५३ मे निर्दिष्ट की है जो वीरसेनके शिष्य एव जिनसेनके गुरुभाई विनयसेनके दीक्षित-शिष्य थे। साथ ही यह भी सूचित किया है कि काण्ठासघकी यह उत्पत्ति विनयसेन तथा जिनसेनशिष्य गुणभद्रकी मृत्युके वाघ हुई है। गुणभद्रकी मृत्युका समय वि०.
१. रादी चदो कित्ती भूषण णामेहि णदिसंघस्स ।
सेणो रन्जो वीरो महो तहेव सेणाराघस्स ॥१॥ सिंहो कुभो आसव सायरणामेहिं सिंहसघस्स ।
देवो दत्तो नागो तुगो तहेव देवसंघस्स ॥२।। २. देखो, जैनग्रेन्यप्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग। ३. देखो, दर्शनसार गाथा न० ३०-३२, ४०,