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तत्त्वानुशासन हो सकता है, क्योकि इस शिलालेखके समय (शक स०६६६) वादिराजके अस्तित्वका कोई प्रमाण नहीं है, उन्होने इस समयसे ५२ वर्ष पूर्व शक स० ६४७ (वि० न० १०८२, ईस्वी सन् १०२२) मे पार्श्वनाथचरितकी रचना की है, अत उनके द्वारा प्रशसित श्रीविजयका समय और भी पूर्वका होना चाहिये अथवा हो सकता है । वादिराज-द्वारा प्रशमित श्रीविजय ही यदि अपराजितसूरि होते तो उनकी 'विजयोदया' टोकामें भगवज्जिनसेनके श्राप महापुराण, तथा अमृताचन्द्राचायके अन्योका कुछ न कुछ प्रभाव जरूर लक्षित होता, परन्तु ऐसा नहीं पाया जाता। डा० उपाध्यायजीने भी अपनी उक्त प्रस्तावनामे जटिल मुनिकृत वरागचरितके उपयोगकी सूचना तो की है, जो आर्ष महापुराणसे पूर्ववर्ती है, परन्तु आर्ष महापुराण तथा उसके उत्तरवर्ती गथोके उपयोगकी कोई सूचना नहीं की, जिससे मालूम होता कि उन्होने भी अपने अन्त परीक्षणद्वारा महापुराणादिके प्रभावको उक्त टोकामे लक्षित नहीं किया।
(घ) एक श्रीविजय जवूदीवपण्णत्तीके कर्ता पद्मनन्दिके शास्त्रगुरु थे, जिनके विपयमे पद्मनन्दिने लिखा है कि 'वे नाना नरपतियोसे पूजित, विगतमय, सगभगउन्मुक्त, सम्यग्दर्शन-शुद्ध, सयम-तप-शील-सपूर्ण, जिनवर-वचन-विनिर्गत-परमागमदेशक, महासत्त्व, श्रीनिलय, गुणोसे युक्त
और विशेषस्यातिप्राप्त गुरु थे। उन्हीके पाससे जिनवर-वचन-विनिर्गत अमृतभूत अर्थपदस ग्रह (भागम) को सुनकर तथा कुछ प्राप्तकर उन्होने इस प्रथके उद्देशो को रचा है। साथ ही, प्रथनिर्माणका कोई समय न
१ देखो, अनेकान्त वर्ष २ कि० ८। २. णाणा-नरवइ-महिदो विगयभत्रो सग-भग-उम्मको ।
सम्भ६ सणसुद्धो सजम-तप-सीलस पुराणो ॥१४३।। जिणवर-वयण-विनिग्गय-परमागदेसमो महासत्तो। सिरिणिलो गुणसहिओ सिरिविजयगुरु त्ति विक्खाओ ॥१४४॥ सोऊण तस्स पासे जिणवयण-विनिग्गय अमदभूदं । रपद किंचिद् से अत्यपद तहव लद्ध ण ॥१४॥
--जवू० प० उद्देश १३