________________
-
इस स्तुतिपद्यमे बतलाया है कि ' श्रीहेमसेनमुनिमे विद्या और तपका जो उत्कर्ष चिरकालीन योगवलसे परमोन्नतिको पहले प्राप्त था वह प्राय सबका सब उनकी पीठिका ( आसन - पट्ट) पर स्थित श्रीविजयमे सक्रमण कर गया है, अन्यथा इतनी शीघ्रतासे ऐसी विद्या और ऐसे तपका प्रादुर्भाव कैसे होता ?"
1
इस स्तुतिसे जहाँ श्रीविजयके हेमसेन जैसे महान् विद्वान और तपस्वी होनेका तथा शीघ्र ही विद्या और तपश्चर्यामे महती उन्नति करने का पता चलता है वहाँ यह भी ध्वनित होता है कि वे हेमसेनके पट्टशिष्य जैसी स्थितिमे थे। और इस तरह अपराजित सूरिसे उनके व्यक्तित्वका और भी पृथकत्व हो जाता है; क्योकि अपराजितसूरि बलदेव सूरिके शिष्य थे, हेमसेनके नही । और न उनमे हेमसेनकी विद्यातपश्चर्या की सक्रान्तिका कही कोई उल्लेख है । वे गगराज - पूजित भी नही थे, जैसा कि इन श्रीविजय के सम्बन्धमे शिलालेख के पूर्ववर्ती पद्य प० ४५मे उल्लेख है और जहाँ इन्हें श्रमानुषगुण, प्रस्ततम और प्रमाशु जैसे विशेषणों के साथ भी उल्लेखित किया है, जो सब इनके असाधारण व्यक्तित्वके द्योतक हैं । श्रीविजयनामके और भी अनेक विद्वान हुए हैं और मौर यह वात डा० उपाध्यायजीको भी मान्य है १ ।
1
}
समय - सम्वन्वी कल्पनामे जिम शिलालेख के समयका उल्लेख किया गया, है वह शक स० ६६६ में उत्कीर्ण नगरताल्लुकका शिलालेख न० ३५ है, जिममे वादिराजके उत्तरवर्ती कमलभद्राचार्यको एक दान दिया गया है । इसमे पूर्ववर्ती गुरुवोका उल्लेख करते हुए जहाँ वादिराजसूरिका खास तौरसे उल्लेख है वहाँ तदनन्तर दो पद्य श्रीविजयको प्रशंसा भी दिये गये हैं, जिनमे एक पद्य वही है जो वादिराजद्वारा उनकी प्रशसामें कहा गया, है । इससे श्रीविजयका समय इस शिलालेख के समय ( ई० स० १०७७), से थोडा ही पूर्वं (Shighly earliar ) नहीं किन्तु ५०-६० वर्ष पूर्व भी
१ *even if we hesitate to accept Sri Vijay's identity with others of that name. (बृहत्कथाकोधताना)
,