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तत्त्वानुशासन ध्यायजीने किया भी है । ये दोनो कल्पनाएँ उस वक्त तक माननीय हैं जब तक कोई स्पष्ट प्रमाण इनके विरुद्ध सामने न आजाय ।
तीसरी और चौथी कल्पनाएँ वहुत कुछ विचारणीय हैं-उन्हे सहसा ग्रहण नहीं किया जा सकता, क्योकि अभी तक ऐसा कोई भी प्रमाण उपलब्ध नही हुआ जो अपराजितसूरिका दूसरा नाम श्रीविजयसे भिन्न या अतिरिक्त 'पडित पारिजात' प्रकट करता हो । एक श्री. 'विजयका दूसरा नाम नगरतालुकके शिलालेख न० ३५मे पडित 'पारिजात' जरूर दिया है । इन्ही श्रीविजयका बेलूरतालकके शिलालेख न० १७ में
और श्रवण बेल्गोल-शिखालेख नं०५४ (६७) मे भी उल्लेख है, परन्तु वहां उनका दूसरा नाम 'पडित पारिजात' नही दिया । हो सकता है इन्हीं श्रीविजयका जो उल्लेख दूसरे शिलालेखोमें है उनमें उनका दूसरा नाम 'पडित पारिजात' दिया हो । परन्तु ये श्रीविजय वे श्रीविजय नही है जो अपराजितसूरि कहलाते है । ये रक्कसगग आदि राजामोके गुरुथे, उनकेद्वारा पूजित और श्रीमतिसागरशिष्य-वादिराजके द्वारा प्रशसित थे। इनकी प्रशसामे वादिराजने जो पद्य कहा है वह श्रवणवेल्गोल और नगरतालुक के उक्त शिलालेखोमे उद्धृत है। यहां उसे 'श्रवण-बेल्गोल-शिललेखसे चूणिवाक्यके साय उद्धृत किया जाता है -
१चूरिण ।। स्तुतो हि स भवानेष श्रीवादिराजदेवेन ।। यद्विद्या-तपसो. प्रशस्तमुभय श्रीहेमसेने मुनौ । प्रागासीन्सुचिराभियोगवलतो नीत परामुन्नति । प्राय श्रीविजये तदेतदखिल तत्पीठिकाया स्थिते ।
सकान्त कथमन्यथानतिचराद्विद्य दृगीदृक् तप ॥४६॥ १ यह चूर्णि शिलालेखके जिस स्तुतिपद्यसे सम्बन्ध रखती है वह इस प्रकार है - गगावनीश्वर-शिरोमणि-वद्ध-सध्यारागोल्लसच्चरणचारुनखेन्दुलक्ष्मी ।। श्रीशब्द-पूर्व-विजयान्तविनूतनामा श्रीमानमानुषगुणोऽस्ततम प्रमाशु ||४५।।