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तत्त्वानुशासन
विशेषण उनके साथमे नही है और न उनकी शिष्य-परम्परामे बलदेवसूरि, अपराजितसूरि या श्रीविजयका ही कोई नाम है। फिर भी यदि यह मान लिया जाय कि चन्द्रनन्दिकी कुमारनन्दिसे भिन्न दूसरी शिष्यपरम्परा बलदेवसूरिसे प्रारम्भ हुई होगी और इसलिए उक्त श्रीविजय इन्हीके प्रशिष्य होगे तो श्रीविजयका समय विक्रमकी आठवी शताब्दीका प्रायः उत्तरार्ध बनता है।
उक्त दोनो चन्द्रनन्दि आचार्योंके समयको देखते हुए हमारे विजयदेव उनमेसे किसीके भी प्रशिष्य नहीं हो सकते; क्योकि उनके साक्षात् शिष्य रामसेन अपने तत्त्वानुशासनमे वादको होने वाले विक्रमकी ६वी-१०वी शताब्दी तकके आचार्य भगवज्जिनसेन, गुणभद्र, और अमृतचन्द्रके ग्रन्थवाक्योको अपना रहे अथवा उनका अनुसरण कर रहे हैं।
(ग) श्री डा० ए० एन० उपाध्ये ने बृहत्कथाकोशकी प्रस्तावना (Introduction) मे अपराजितसूरिके समयादिका विचार करते हुए
और उसके निर्णयमे उनकी विजयोदयाटीकाकी प्रशस्तिमे दिये हुए तथ्यो ((facts) को बहुत कुछ अपर्याप्त (too meagre) बतलाते हुए लिखा है कि___ 'यदि यह मान लिया जायकि चन्द्रनन्दि और चन्द्रकीति परिवर्तनीय (interchangeable) नाम हैं तो उनकी दृष्टिमे एक समूह उत्कीर्ण लेखो (Inscription) १ का ऐसा है जो एक श्रीविजयका
१. अष्टानवत्युत्तरे पटछतेसु शकवर्षे ष्वतीतेष्वात्मनः प्रवर्द्धमानविनयवीयसवत्सरे पंचशततमे प्रवर्द्धमाने मान्यपुरमधिवसति विजयस्कन्दावारे श्रीमूलमूलशर्णमनन्दित नन्दिसघान्वये एरेगित्तर्नाम्नि गणे भूलिकल्गच्छे स्वच्छतरगुणकिरणततिप्रहादितसकललोक चन्द्रश्वापर चन्द्रनाम गुरुरासीत । तस्य शिष्यस्समस्तावबुधलोकपरीक्षण-क्षमाशक्ति परमेश्वर-लालनीयमाहिमा कुमारवद द्वितीयकुमारनन्दिनामामुनिपतिरभवत् । तस्यान्तेवासि ।
1 E C VIII, Nagar No 35-37, Tirthhalli No 12, IV, Nagmangal 100, V. Channarayapattan 149, BELur 17, Arsiker I, II No 54 (or N 67, 2nd edit on's), VI, Kadur 69