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प्रस्तावना
(क) भगवती आराधनाकी 'विजयोदया' टीकाकी प्रशस्तिमे टीकाकार अपराजितसूरि (श्रीविजय) ने अपनेको चन्द्रनन्दिमहाकर्मप्रकृत्याचार्यका प्रशिष्य और बलदेवसूरिका शिष्य बतलाया है। साथ ही, नागनन्दीको अपना विद्यागुरु बतलाते हुए उन्हीकी प्रेरणासे टीकाका रचा जाना सूचित किया है', टीकाके रचे जानेका कोई समयादिक नही दिया। इससे प्रशस्तिगत नामोको ठीकसे पहचानने की समस्या खडी हुई, क्योकि एक नाम के अनेक विद्वान तथा एक विद्वानके अनेक शिष्य भी हुए है और उन सबके बहुधा व्यक्तिगत उल्लेख मिलते हैं--पूर्वापरगुरुशिष्यादिके सम्बन्धको व्यक्त करते हुए नहीं।
(ख) चन्द्रनन्दिनामके एक आचार्यका पुराना उल्लेख मर्कराके ताम्रशासन (दानपत्र) मे मिलता है, जिसमे कुन्दकुन्दाचार्यकी वशपरम्परामें होनेवाले छह आचार्योंका नाम गुरु-शिष्यके क्रमसे दिया है, उनमे छठे आचार्य चन्द्रनन्दि हैं, जिन्हे इस पत्रद्वारा शक स० ३८८ (वि० स० ४२३) मे एक ग्राम दान दिया गया है । यदि उक्त श्रीविजय इन्ही चन्द्रनन्दिके प्रशिष्य हो तो उनका समय विक्रमकी छठी शताब्दीका प्राय. अन्तिमचरण बैठता है ।
दूसरे चन्द्रनन्दि नामक आचार्यका उल्लेख श्रीपुरुषके दानपत्र (नागमगल ताम्रशासन) मे मिलता है जो शक स० ६६८ (वि० स० ८३३) * मे उत्कीर्ण हुमा है, और जिसमे चन्द्रनन्दिकी शिष्यपरम्पराका-कुमारनन्दि, कीर्तिनन्दि, विमलचन्द्र, गोवपयके क्रमसे उल्लेख करते हुए, गोवपंयको दानके दिये जानेका विधान है । इस दानपत्रमे चन्द्रनन्दिको मूलमूलशर्णाभिनन्दित नन्दिसघ, एरेगितु नामकगरण और मूलिकल्गच्छका गुरु (आचार्य) सूचित किया है१ । 'महाकर्मप्रकृत्याचार्य' जैसा कोई
१. 'चन्द्रनन्दि-महाकर्मप्रकृत्याचार्य-प्रशिष्येण आरातीयसरिचूलामगिना नागनन्दिगणिपादपद्मोपसेवाजातमतिलवे न पलदेवस रिशिष्येण जिनशामनोद्धरणधीरेण लव्धयश प्रसरेणाऽपराजितस रिणा श्रीनागनन्दिगणिविचोदितेन रचिता