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प्रस्तावना घालुक्यवशी अरिकेसरीने अपने पिता वद्दि गके द्वारा निर्मित शुभघामजिनालयके लिये एक ग्राम उक्त सोमदेवको दान में दिया है । नेमिदेवके शिष्योमे जो १०० शिष्य सोमदेवके अग्रज (बडे गुरुभाई) थे, उनमे महेन्द्रदेव प्रमुख विद्वान् तथा सोमदेवके साथ विशेष सम्पर्क एव घनिष्टताको प्राप्त जान पड़ते हैं, इसीसे मोमदेवने नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिमे उन्हीका नाम खास तौरसे गुरुनेमिदेवके नामान्तर उल्लेखित किया है और उन्हे 'श्रीमद् वादीन्द्रकालानल' एव 'मद्रारक' जैसे विशेषणोंसे दिशिष्ट बतलाया है। यशस्तिलकके प्रथम आश्वासासका अन्तिम पद्य इस प्रकार है -
सोऽयमाशापितयशः महेन्द्रामरमान्यधीः ।
देयात्त सततान द वस्त्वभीष्ट जिनाधिपः। यह पद्य दो अर्थोके श्लेपको लिये हुए है-एक अर्थ जिनाधिपके पक्षमे और दूसरा सोमदेवके पक्षमे घटित होता है । 'सोमदेव' यह नाम पद्यके चारो चरणोके आद्याक्षरोको मिलाकर बनता है ऐसा श्रुतसागरकी टीकामे सूचित किया गया है। सोमदेव पक्षमे 'महेन्द्रामरमान्यधी: (महेन्द्रदेवके द्वारा जिसकी बुद्धि सराही गई है) यह विशेषणपद उसी महेन्द्रदेवके उल्लेखको लिये हुए जान पडता है जो सोमदेवका बड़ा गुरुभाई था और जिसका उल्लेख नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिमे उक्त विशेपणो के साथ किया गया है ।
कुछ विद्वान् यहां प्रयुक्त 'महेन्द्रदेव' का अभिप्राय कन्नौज (कान्यकुब्ज) के राजा महेन्द्रपाल प्रथम या द्वितीयका लेते हैं, और उसका
१ शकान्देष्वाष्टाशीत्यधिकेष्वाटाशतेषु गतेप (प्रव)र्तमानक्षय-सवत्सरे वैशाखयो(पौ)यमास्या(स्या) बुधवारे तेन श्रीमदरिकेमरिणा अनन्तरोत्काय तस्मै श्रीमत्सोमदेवसूरये दत्त । सोदकधारन्दत्त । 1. A part from the fact that the commentator is not aware of any such word-play, Mahendramara might well refer to Mahendradeva, the elder brother of Somadeva, mentioned in the colophon to his Nitivakyamrit ~-K_K. Handiqu', YasastiLaka and Indian culture,