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तत्वानुशासन देवसे भिन्न नहीं है जिनका रामसेनने अपने शास्त्र-गुरुवोंमे उल्लेख किया है । सम-सामयिक होनेसे उनकी सगति ठीक बैठ जाती है। महेन्द्रदेव नामके कोई दूसरे महाविद्वान् विक्रमकी १०वी शताब्दीमे ऐसे पाये भी नही जाते जो रामसेनके शास्त्रगुरुका स्थान ले सकें। ____सोमदेवने यशस्तिलक और नीतिवाक्यामृत दोनो ग्रन्योमे अपनेको भगवन्नेमिदेवका शिष्य लिखा है, जो कि यशोदेवके शिष्य थे, और उन्हें सकल-ताकिकोका चूडामणिरूप महावादी प्रकट किया है । इन भगवन्नेमिदेवके वहुत शिप्य थे, जिनमेसे एकशतक शिष्योके अवरज (अनुज) और एक शतकके पूर्वज सोमदेव थे। ऐसा परभनीके ताम्रशासन (दागपत्र) में मालूम होता है२, जो यशस्तिलक (शक ९८१) से सात वर्ष बाद शक स० ८८८ के गत होने पर वैशाखकी पूर्णिमाको लिखा गया हैं और जिसमे राष्ट्रकूट नरेश श्रीकृष्णराजदेवके महासामन्त
१. नीतिवाक्यामृतकी वह प्रशस्ति इस प्रकार है -
"इति सकल-तार्किक-चक्र-चूहामणि-चुम्बित-चरणम्य, पचपचाशन्महावादिविजयोपाजितकीर्तिमन्दाकिनी-पविन्नित-त्रिभुवनस्य, परमतपश्चरण रत्नोदन्वता धामन्नेमिदेवभगवत. प्रियशिष्येण. वादीन्द्रकालानलश्रीमन्महेन्द्रदेवमदारकामुजेन, स्याकादाचलसिंहतार्किकचक्रवर्ति-वादीभप चानन-वाक्कल्लोलपयोनिधिकविकुलराज-प्रशस्ति-प्रशस्तालकारेण, पण्णवतिप्रकरण-युक्तिचिन्तामणिसत्र-महेन्द्रमातलि-सजल्प-यशोवरमहाराजचरितमहाशास्त्रवेघसा श्रीसोमदेवस रिणा विरचित (नीतिवाक्यामृत) समाप्तमिति ।"
२ ताम्रशासनका वह अंश इस प्रकार है :श्रीगौटसघे मुनिमान्यकीर्तिन्र्नाम्ना यशोदेव इति प्रनशे । वभूव यस्योग्रतप प्रभावात्समागम शासनदेवताभि ॥१५॥ शिष्योऽभवत्तस्य महर्द्धिमाज स्यावादरत्नाकरपारदृश्वा । श्रीनेमिदेवः परवादिदर्पद्रमावलीच्छेद-कुठारनेमिः ॥१६।। तस्मात्तपःश्रियो भर्ता (त) ल्लो (लो) काना हृदयगमा । बभूवुर्वहव शिप्या रत्नानीव त्दाकरात् ॥१७॥ तेषा शतस्यावरज. शतस्य तया (था) भवत्पूर्वन एव धीमान् । श्रीसोमदेवम्तपस श्रुतस्य स्थान यशोधाम गुणोन्जितश्री ॥१८॥