________________
प्रस्तावना श्रीसोमदेवसूरिका 'यशस्तिलक' ग्रन्थ शक स० ८८१ (वि० स० १०१६) मे वनकर समाप्त हुआ है, जो कि एक बडा ही महत्वपूर्ण गद्य-पद्यात्मक चम्पू ग्रन्थ है । इसके बहुतसे पद्योंको जयसेनसूरिने अपने उक्त 'धर्मरत्नाकर' मे उद्धृत करके उन्हे ग्रन्थका अग बनाया है ।
"दुराग्रहग्रहास्ते विद्वान पुसि फरोति फिम् ।
कृष्णपाषाणखण्डेषु मार्दवाय न तोयद ॥" इस पद्यको तो उन्होंने 'तथा चोक्त कलिकालसर्वज्ञ ' इस वाक्यके साथ उद्धृत किया है, और इस तरह सोमदेवसूरिको 'कलिकालसर्वज्ञ' सूचित किया है, जिससे यह भी पता चलता है कि हेमचन्द्राचार्यको श्वेताम्बरसमाजमे जो 'कलिकालसर्वज्ञ' कहा जाता है उससे कोई २००वर्ष पहले दिगम्बरसमाजमे सोमदेवसूरिको 'कालिकालसर्वज्ञ' कहा जाता था । और इसका प्रधान श्रेय उनकी यशस्तिलक-जैसी असाधारण रचनामोको ही प्राप्त जान पडता है। इस ग्रन्थमे आठवें आश्वासके अन्तर्गत 'ध्यानविषि' नामका एक कल्प (३६) है, जो निर्णयसागरीयसस्करणके उत्तरखण्डमे पृ० ३९१ से ४०० तक मुद्रित हुमा है । इस 'ध्यानविधि' कल्पका तत्त्वानुशासन पर कोई प्रभाव मालूम नहीं होता, और इससे यह जाना जाता है कि तत्त्वानुशासनके अवतार-समय यशस्तिलक वनकर समाप्त नही हुआ था-उसका निर्माण हो रहा था । अन्यथा उसका कुछ न कुछ प्रभाव जरूर पडता-कमसे कम धर्मध्यानके स्वरूप कथनमे अन्यरूपोके साथ धर्मका वह रूप भी ग्रहण किया जाता जिसे सोमदेवने यशस्तिलक और नीतिवाक्यामृतमे 'यतोऽम्पुदयनिः यससिद्धिः स धर्मः'के रूपमे प्रतिपादित किया है । ___इससे तत्त्वानुशासनका जो समय विक्रमकी १० वी शताब्दीका अन्तिमचरण ऊपर निश्चित किया गया है वह और पुष्ट होता है । साथ ही यह भी मालूम पडता है कि सोमदेवने नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिमे जिन महेन्द्रदेव भट्टारकका अपनेको 'अनुज' (छोटा गुरुभाई) लिखा है और जिन्हे 'वादीन्द्रकालानल' बतलाया है वे उन महेन्द्र