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तत्त्वानुशासन
दूमरे देवसेनाचार्य ने व्योम पडितके प्रतिवोघा सस्कृतमे रचा है।
ये सब तया और भी कुछ बातें पडित श्रीमिलापचन्दजी कटारियाने 'देवमेनका नयचक्र' नामक अपने लेखमे प्रकट की है, जो १४ नवम्बर १९५७के जेनसन्देशमे प्रकागित हुमा है । साथ ही उसी नयचर पर आलापपद्धतिके बननेकी अधिक सभावना व्यक्त की है, जो सस्कृतमे व्योम पंडितके लिये रचा गया है। सभावना अच्छी है; उक्त नयचक्रके 'नानास्वनावसयुफ्त' और 'दुनंयकान्तमारूढा.' जेसे पद्य भी आलापपद्धतिमे उद्धृत पाये जाते हैं; परन्तु लक्त सस्कृत नयचक्रमे भी रचना-काल दिया हुमा नहीं है और न दूसरे प्रमाणोंसे उसे सिद्ध करके बतलाया गया है। ऐसी स्थिति में मालापपद्धतिपर कर्तृत्व-विषयक सन्देहको छोडकर प्रकृत-विषयमे उससे अपना कोई प्रयोजन मिद्ध नहीं होता। और आलापपद्धतिका कर्तृत्व सदिग्ध होने पर उसमे पाया जाने वाला तत्त्वानुशासनका उक्त पद्य अपने समयनिर्णयमे कोई सहायक नहीं होता । अत. तत्त्वानुशासनके समयकी जो उत्तर-सीमा ११वी शताब्दीका प्रथम चरण ऊपर स्थिर की गई है वही स्थिर रहती है।
बाह्य-परीक्षणका उपसहार इस सारे बाह्य-परीक्षण-द्वारा तत्त्वानुशासनके समयकी उत्तर-सीमा प० आशाधरजीके समय विक्रमकी १३वी शताब्दीके उत्तरार्ध (स० १२८५) से पीछे हटती-हटती ११वी शताब्दीके प्राय. प्रारम्भ तक पहुंच जाती है और इस तरह पूर्व तथा उत्तर सीमाओंके मध्यमे कोई ५०-६० वर्षका ही अन्तराल अवशिष्ट रह जाता है । इस अन्तराल पर विचारके लिये जव फिरसे अन्त.परीक्षणकी ओर ध्यान दिया जाता है तो मालूम होता है कि तत्त्वानुशासनपर अमृतचन्द्राचार्य के तत्त्वार्थसार तथा समयसारादिकी टीकाओका भी प्रभाव है, उनकी युक्तिपुरस्सरकथनशैलीको अपनाया गया है । इतना ही नहीं, बल्कि निश्चय और व्यव