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तत्त्वानुशासन
उस समय जनहितैषी (बडा साइज) भाग १३ के अक १२ में पृ० ५४१ से ५५० तक प्रकाशित हुई थी, जिसके विरोधमें उक्त प्रो० घोशाल अथवा दूसरे किसी विद्वानका कोई लेख मुझे आज तक देखनेको नही मिला । जान पडता है डा० ए० एन० उपाध्येजीके सामने परमात्मप्रकाशकी प्रस्तावना लिखते समय मेरी उक्त समालोचना नहीं रही है, रहती तो वे उस पर अपना विचार ज़रूर व्यक्त करते । अस्तु ।
इस सब प्रासगिक कथनके बाद अब मैं फिरसे अपने प्रस्तुत विषयको लेता हूँ।
'धर्मरत्नाकर' का रचनाकाल सवत् १०५५ है, जिसे प० परमानद जी शास्त्रीने वीरसेवामन्दिरसे प्रकाशित जैनग्रन्थप्रशस्तिसग्रह प्रथमभागकी प्रस्तावनामे, बादको ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वतीभवन व्यावरकी प्रतिसे मालूम करके प्रकट किया है और जो ग्रन्थकी प्रशस्तिके अन्तिम पद्यके रूपमे इस प्रकार है - बाणेन्द्रियव्योमसोम-मिते सवत्सरे शुभे (१०५५)। ग्रन्थोऽयं सिद्धतां यात सवलोफरहाटके ।।
धर्मरत्नाकर एक संग्रह ग्रन्य है, जिसे ग्रन्थकारने अपने तथा दूसरे अनेक ग्रन्थोके पद्य-वाक्यरूप कुसुमोका संग्रह करके मालाकी तरह रचा है और इसकी सूचना भी उन्होने ग्रन्थके अन्तिम २०वें अवसर (पद्य ६०) मे "इत्येतैरुपनीतचित्ररचनं स्वरन्यदीयरपि । मूतोदधगुणस्तथापि रचिता मालेव सेय कृतिः।" इस वाक्यके द्वारा की है। इसमें तत्त्वानुशासनके उक्त पद्यको अपनाये जानेसे तत्त्वानुशासन वि० स० १०५५ से बादकी कृति न होकर पूर्वको ही कृति ठहरता है।
अमितगति-द्वितीयके उपासकाचारमे यद्यपि उसके निर्माणका समय नहीं दिया, परन्तु उनके दूसरे ग्रन्थो सुभाषितरत्नसदोह, धर्मपरीक्षा और पचसन हमे वह क्रमश वि० स० १०५०, १०७०,१०७३ दिया हुमा है, इससे वे विक्रमकी प्रायः ११वी शतीके तृतीय चरणके विद्वान्