________________
२८
तत्त्वानुशासन
वाक्यके द्वारा उसका स्पष्टरूप से 'सोम' के निमित्त रचा जाना सूचित किया है। इससे अब सोमश्रेष्ठी के निमित्त लघुद्रव्यसंग्रहका रचा जाना सन्देहका कोई विषय नही रहता । सोमका विशेष परिचय क्या है ओर उसके लिये किस नगर तथा स्थानमे इस ग्रन्थको रचना हुई है यह सव ब्रह्मदेवके उक्त घटना- निर्देशसे सम्बन्ध रखता है । मूल घटनाके निसन्देह हो जानेपर उत्तर घटनाओपर सन्देहका कोई कारण विशेष नही रहता । पचास्तिकाय प्रथम गाथाकी टीकामे जयसेनने ग्रन्थके निमित्तकी व्याख्या करते हुए स्वयं उदाहरण के रूपमे द्रव्यमग्रह - टीकाके इस निमित्त कथन की वातको अपनाया है और लिखा है कि अन्यत्र द्रव्यसग्रहादिकमे सोमश्रेष्ठ आदि को निमित्त जानना चाहिये :
"अथ प्राभृतग्रन्ये शिवकुमारमहाराजो निमित्त श्रन्यत्र द्रव्यसंग्रहादो सोमश्रेष्ठ्यादि ज्ञातव्य ।"
इससे जयसेनका ब्रह्मदेवकी उक्त निमित्त कथन की बातसे परिचित होना पाया जाता है और इससे जयसेन ब्रह्मदेव के उत्तरवर्ती ठहरते हैं, न कि पूर्ववर्ती । दोनोकी टीकाओमे कुछ वाक्यो तथा उद्धरणोके समान होने मात्र से बिना किसी हेतुके एकको पूर्ववर्ती और दूसरेको उत्तरवर्ती नही कहा जा सकता ।
अब रही प्रथम कारणकी वात, द्रव्यसग्रह के कर्त्ता वे नेमिचन्द्राचार्य नही हैं जो कि गोम्मटसारके कर्ता हैं । गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कहलाते हैं और कर्मकाण्डकी एक गाथा (न० ३६७ ) मे उन्होने स्वय अपनेको 'चक्रवती' प्रकट किया भी है. जब कि वृहद्द्रव्यसग्रहके कर्ता अपनेको 'मुनि' और 'तनुसुत्तघर' (अल्पश्र तघर ) सूचित करते हैं' । टीकाकार ब्रह्मदेवने भी उन्हे 'सिद्धान्तदेव' के रूपमे तो उल्लिखित किया है, 'सिद्धान्तचक्रवर्तीके रूपमे नही । इसके सिवाय,
१ दव्वसगह मिल मुखियाहा दोससचयचुदा सुदपुण्णा ।
सोधयतु त सुत्तधरेण मिचदमणिया भणिय ज ॥