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प्रस्तावना
द्वारा रचना हुई है। ब्रह्मदेवने अपनी टीकामे भी दो-एक स्थानोपर "प्रवाह सोमामिधानो राजश्रीष्ठी" जैसे वाक्यो के द्वारा यह सूचित किया है कि 'सोम', नामका सेठ उनकी टीकाके समय भी मौजूद था और टीकाका कुछ अश उसके प्रश्न-विशेषसे सम्बन्ध रखता है । भोजदेवका राज्य-काल वि० स० १०७५ से ११०७ तक रहा है। और इसलिये ब्रह्मदेव-द्वारा अपने दोनो ही टीका-ग्रन्योमे उल्लेखित तत्त्वानुशासनको रचना इस भोजकाल अथवा विक्रमको १२ वीं शताब्दीके प्रथम चरणसे पूर्व हुई है।
यहाँ पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि श्री डा० ए० एन० उपाध्येजीने परमात्मप्रकाश ग्रन्थपर जो अग्रेजी प्रस्तावना ई० सन् १९३७ मे लिखी है, और जिसका हिन्दी-सार प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीके द्वारा लिखा जाकर उसके साथ प्रकाशित हुआ है, उसमे ब्रह्मदेवके उक्त घटना-निर्देशको समकालीन प्रमाणके रूपमे स्वीकार न करके नेमिचन्द्रका भोजदेवके समकालीन होना और द्रव्यसग्रहको सोमश्रेष्ठीके लिये पहले लघुरूपमे रचा जाना इन दोनोंको माननेसे इनकार किया है । जहाँ तक मैं समझ सका हूँ उनके इस अस्वीकार तथा इनकारके उस समय तीन कारण रहे हैं--एक तो द्रव्यसग्रहको गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्राचार्यकी कृति मानना, दूसरा ब्रह्मदेवको पचास्तिकायके टीकाकार जयमेनका उत्तरवर्ती तथा उनकी टीकासे प्रभावित मान लेना और तीसरा लघुद्रव्यसगहका उपलब्ध न होना। लघुद्रव्यसग्रह श्रीमहावीरजीके शास्त्रभडारसे जुलाई १९५३ में उपलब्ध हो चुका है और उसे मैंने अपने वक्तव्यके आथ अनेकान्त वर्ष १२ की ५वी किरण (अक्तूबर १६५३) मे प्रकाशित कर दिया है । और वह अलगसे भी बृहद्रव्यसग्रहके साथ सानुवाद छप गया है । उसकी अन्तिम गाथामे १ श्रीनेमिचन्द्रगरणीने 'सोमच्छलेण रइया' इस १ वह गाथा इस प्रकार है -
"सोमच्छलेण रझ्या पयस्थलक्खणकराठ गाहाओ। मन्वयारणिमित्त गणिणा सिरिणेमिचन्देण ॥ २५ ॥