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तत्त्वानुशासन समुत्पन्न-सुखामृतरसा-स्वाद-विपरीत-नारकादिदु खभयभीतस्य परमात्मभावनोत्पन्न-सुखसुधारसपिपासितस्य भेदाभेदरत्नत्रयमावनाप्रियस्य भव्यवरपुण्डरीकस्य माण्डागा-रायनेकनियोगाधिकारिसोमाभिधानराजश्रेष्ठिनो निमित्त श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तदेवं पूर्व पविशतिगाथामिलघुद्रव्यसग्रह फुत्वा पश्चाद्विशेषतत्त्वपरिज्ञानार्थ विरचितस्य वृहद्-द्रव्यस ग्रहस्याधिकारशुद्धि-पूर्वकत्वेन वृत्ति प्रारम्यते ।"
इन पक्तियोमे यह बतलाया गया है कि 'द्रव्यसग्रह ग्रन्थ पहले २६ गाथाके लघुरूपमे नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेवके द्वारा 'सोम' नामक राजथेष्ठिके निमित्त आश्रम नामक नगरके मुनिसुव्रतचैत्यालयमे रचा गया था, वादको विशेष तत्त्वके परिज्ञानार्थ उन्ही नेमिचन्द्र के द्वारा बृहद्रव्यसग्रहकी रचना हुई हैं, उस वृहद्रव्यसग्रहकी अधिकारोंके विभाजन-पूर्वक यह व्यास्या-वृत्ति (टीका) प्रारम्भ की जाती है। साथ ही यह भी प्रकट किया है कि 'आश्रम नामका वह नगर उस समय धाराधिपति भोजदेव नामक कलिकालचक्रवतिके सम्बन्धी श्रीपाल नामक महामण्डलेश्वर (राज्यके किसी प्रान्त-शासक) के अधिकारमे था। और वह 'सोम' नामका सेठ भोजदेवका राजष्ठि था भाण्डागार (कोप) आदि अनेक नियोगोका अधिकारी होनेके साथ-साथ शुद्धात्मद्रव्यकी सवित्तिसे उत्पन्न होनेवाले सुखामत स्वादके विपरीत जो नारकादि दुख है उनसे भयभीत तथा परमात्माकी भावनासे उत्पन्न होनेवाले सुघारसका पिपासु था और भेद-अभेदरूप रत्नत्रय (व्यवहार तथा निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) की भावनाका प्रेमी भव्यजन-श्रेष्ठ था।'
ब्रह्मदेवके उक्त घटना-निर्देश और उसकी लेखन-शैलीसे ऐसा मालूम पडता है कि ये सब घटनाएं साक्षात् उनकी आंखोके सामने घटी हुई हैं—परमार राजा 'भोजदेव', उनके महामण्लेश्वर 'श्रीपाल'और उनके राज श्रेष्ठी सोम' तथा नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव उनके समयमे मौजूद थे, और उनके समयमे ही लघु तथा वृहद् दोनो द्रव्यसग्रहोकी नेमिचन्द्र