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________________ तत्त्वानुशासन सर्वथा ज्ञायते तस्य न चैतन्य निरर्थकम् । स्वभावत्वेऽस्वभावत्वे विचाराऽनुपपत्तितः ।।२।। निरर्थकस्वभावत्वे ज्ञानभावानुषगत । न ज्ञानं प्रकृतेधर्मश्चेतनत्वाऽनुष गत ॥३॥ प्रकृतेश्चेतनत्व स्यादात्मत्व दुनिवारणम् । ज्ञानात्मके न चैतन्यं नरर्यक्यं न युज्यते ॥॥ नाऽभावो मुक्त्यवस्थायामात्मनो घटते ततः । विद्यमानस्य भावस्य नाऽभावो युज्यते यतः ॥५॥ यथा चन्द्र स्थिता कान्तिनिर्मले निर्मला सदा । प्रकृतिविकृतिस्तस्य मेघादिजनिताऽऽवृति ॥६॥ तयात्मनि स्थिता ज्ञप्तिविशदे विशदा सदा । प्रकृतिविकृतिस्तस्य कर्माष्टककृताऽऽवृतिः ॥७॥ जीमूतापगमे चन्द्र यथा स्फुटति चन्द्रिका । दुरितापगमे शुद्ध। तथैव ज्ञप्तिरात्मनि ॥८॥ (८) निम्न पद्य देवसेनकी पालापपद्धतिके पर्यायाधिकारका अग वना हुआ है - अनाद्यनिधने' द्रव्ये स्वपर्यायाः प्रतिक्षणम् । उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति जलकल्लोलवज्जले ॥ यह पद्य तत्त्वानुशासनका ११२ वा पद्य है, जिसे आलापपद्धतिकारने अपने प्रथमे अपनाया है। इस सब बाह्यपरीक्षणमे जिन ग्रन्थोका उपयोग हुआ है उनके समय-सम्बन्धको भी यहां सूचित कर देना आवश्यक जान पडता है, जिससे प्रस्तुत ग्रन्थके समयका ठीक प्रतिभास हो सके, और वह सक्षेपमें इस प्रकार है - पचास्तिकायके टीकाकार जयसेन विक्रमकी १३वी शताब्दीपूर्षिके विद्वान् हैं। उन्होने पचास्तिकाय-द्वितीय-गाथाकी टीकामें १ 'तत्त्वानुशासनमें 'अनादिनिधने' पाठ है ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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