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प्रस्तावना यथाम्यासेन शास्त्राणि स्थिराणि स्युर्महान्त्यपि । तथा घ्यानमपि स्थैर्य लभतेऽभ्यासतिनाम् ।।८।।
(६) पूर्वोक्त अमितगतिके दादागुरु अमितगति (प्रथम)-विरचित योगसारप्राभृतके हवें अधिकारमे एक पद्य निम्न प्रकारसे उपलब्ध होता है -
येन येनैव भावेन युज्यते यत्रवाहफः ।
तन्मयस्तत्र तत्रापि विश्वरूपो मणिर्यथा ॥५१॥ __ यह पद्य तत्त्वानुशासनके उसी पद्य न० १६१ के साथ सादृश्य रखता और उसके अनुसरणको लिये हुए जान पड़ता है, जिसे ऊपर न० ३ मे योगशास्त्रके पद्यके साथ तुलना करते हुए उद्धृत किया गया है। हो सकता है कि हेमचन्द्राचार्य के सामने यह पद्य भी रहा हो और इसीपरसे उन्होंने 'सोपाधि स्फटिको यथा' के स्थानपर 'विश्वरूपो मणियथा' इस वाक्यको अपनाया हो और यह उनका स्वतः का परिवर्तन न हो। एक ही आशयके इन तीनो पद्योकी स्थितिपर जब विचार किया जाता है तो ऐसा मालूम पड़ता है कि तत्त्वानुशासनका पद्य पहले, योगसारका तदनन्तर और योगशास्त्रका उसके भी वाद रचा गया अथवा अवतरित हुआ है। तत्त्वानुशासनका एक पद्य इस प्रकार है :
स्वरूपाऽवस्थिति पु सस्तदा प्रक्षोणकर्मणः ।
नामावो नाऽप्यचंतन्य न चैतन्यमनर्थकम् ।।२३४॥ यह पद्य भी योगसार-कारके सामने रहा जान पडता है और उन्होंने इसके उत्तरार्धमे प्रयुक्त 'नाऽभाव ,' 'नाप्यचैतन्य' 'न चैतन्यमनर्थक' इन तीन पदोको लेकर उनका कुछ स्पष्टीकरण अपने ग्रन्थमे प्रस्तुत किया है और वह 6 वें अधिकारके आठ पद्योमे है, जो इस प्रकार हैं -
दृष्टि-ज्ञानस्वभावस्तु सदाऽनन्दोस्ति निर्वृतः । न चैतन्य-स्वमावस्य नाशो नाशप्रसगत ॥१०॥