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प्रस्तावना
सोऽयं समरसीमावस्तदेकीकरण स्मृतम् । आत्मा यदपृथक्त्वेन लीयते परमात्मनि ।। (योगशा० १०.४०) येन भावेन यद् प ध्यायत्यात्मानमात्मवित् । तेन तन्मयतां याति सोपाधिः स्फटिको यया ॥ (तत्त्वानु० १६१) येन येन हि भावेन युज्यते यत्रवाहक.' ।
तेन तन्मयता याति विश्वरूपो मणिर्यथा ॥ (योगशा० ६-१४) योगशास्त्रके जिन पद्योंके साथ यहां तुलना की गई है, वे ज्ञाना. र्णवमे भी प्रायः ज्यो-के-त्यो पाये जाते हैं, और भी कुछ पद्य ज्ञानार्णवमे ऐसे पाये जाते हैं जो पूर्णत. या आशिक रूपमे तत्त्वानुशासनसे उद्धृत अथवा तदनुकरणको लिए हुए जान पडते हैं और जिनकी सूचना यथास्थान पादटिप्परिणयोमे की गई है । योगशास्त्र तथा ज्ञानागवके वर्तमान सस्करणोमे बहुतसे पद्य ऐसे उपलब्ध होते हैं, जो दोनोमे समान हैं या कुछ मिलते-जुलते हैं, और इसलिये एक ग्रन्थकारने दूसरेकी कृतिको अपनाया है इस बातको सूचित करते हैं। अनेक विद्वान दोनोमे ज्ञानार्णवको पूर्ववर्ती और कुछ योगशास्त्रको पूर्ववर्ती बतलाते हैं । अभी तक इस विवादका ठीक निर्णय नहीं हो पाया, मौर ज्ञानार्णवकी अनेक हस्तलिखित प्रतियोकी ऐसी स्थिति जान पडी कि उनमे कितने ही पद्य बादको 'उक्त च' आदि रूपसे शामिल होते रहे हैं, और इसलिए उनके आधारपर ग्रन्थके पूर्ववर्तित्वका या उत्तरवतित्वका कोई ठीक निर्णय उस वक्त तक नहीं किया जा सकता जब तक प्राचीन प्रतियो की खोज-द्वारा तुलनात्मक अध्ययनका कार्य होकर उसका मूलरूप स्थिर नहीं हो पाता । ऐसी स्थितिमे मैंने यहां ज्ञानार्णवके साथ तत्त्वानुशासनके तुलना-कार्यको जानबूझ कर छोड दिया है । और भी कुछ ग्रन्थोंके साथ तुलना-कार्यको छोड दिया है, जिनका समय सुनिर्णीत नही है
१ योगशास्त्रनु गुजराती भाषान्तर' सन् १८६६ के निर्णयसागरीय सस्करणमें 'यत्रव्यूहक' पाठ दिया हुआ है।