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तत्त्वानुशासन
वाक्योको थोडा-बहुत परिवर्तन करके या अनुवादित करके रक्खा गया है अथवा जिनपर तत्त्वानुशासनका प्रभाव लक्षित होता है। यहां उन सवके कुछ नमूने प्रस्तुत किये जाते हैं-(१) पचास्तिकाय गाथा १४६ की तात्पर्यवृत्तिमे जयसेनाचार्य ने "तथा चोक्तं तत्त्वानुशासन-ध्यानग्रन्थे" इस वाक्यके साथ "चरितारो न सन्त्यद्य यथाख्यातस्य सम्प्रति" इत्यादि पद्य न० ८६, और "तदप्युक्त तत्रैव तत्त्वानुशसने" इस वाक्यके साथ 'यत्पुनर्वञकायस्य ध्यानमित्यागमे वच' इत्यादि पद्य न० ८४ उद्धृत किया है। तृतीय महाधिकारकी समाप्ति के बादकी वृत्तिमे भी 'ध्याता ध्यानं फल ध्येय' तथा 'गुप्तेन्द्रियमना ध्याता' इन पद्योंको उद्धृत करने के अनन्तर लिखा है-"इत्यादि तत्वानुशासन-ध्यानग्रन्थादो कथितमार्गेण जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन त्रिधा ध्यातारो ध्यानानि च भवन्ति ।"
(२) परमात्मप्रकाशके द्वितीय अधिकारके ३६ वें पद्यकी टीकामें ब्रह्मदेवने "तथा चोक्तं तत्त्वानुशासने ध्यानग्रन्थे" इस वाक्यके साथ 'यत्पुनर्वत्रकायस्य ध्यानमित्यागमे वचः' इत्यादि पद्य न० ८४ और 'तथा चोक्त तत्रेदम' इस वाक्यके साथ 'चरितारो न सन्त्यद्य यथाख्यानस्य साम्प्रतम्' इत्यादि पद्य न० ८६ उद्धृत किया है । द्रव्यसग्रह गाथा ५७ की टीकामे भी ब्रह्मदेवने 'तथैव तत्त्वानुशासनप्रन्थे चोक्तं' इस वाक्य के साथ 'अत्रे दानी निषेधन्ति शुक्लध्यान जिनोत्तमाः' इत्यादि पद्य न०८३ और 'तदप्युक्त तत्रैव तत्वानुशासने' इस वाक्यके साथ 'यत्पुनः र्वज्ञकायस्य' इत्यादि पद्य न ८४ उद्धृत किया है ।
(३) हेमचन्द्राचार्य के योगशास्त्रमे कुछ पद्य ऐसे है जिनमे तत्त्वानुशासनका अर्थसे ही नही किन्तु शब्दसे भी अनुसरण पाया जाता है, जिसके दो नमूने इस प्रकार है -
सोऽयं समरसीमावस्तदेकीकरण स्मृतम् । एतदेव समाधिः स्याल्लोकद्वय-फल-प्रद ॥ (तत्त्वानु० १२७)