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इससे गुणभद्राचार्यका आत्मानुशासन भी ग्रन्थकार के सामने रहा है, यह स्पष्ट जाना जाता है । गुणभद्राचार्यका समय विक्रमको १० वी शताब्दी के पूर्वार्ध तक पाया जाता है, क्योकि उत्तरपुराण के अन्तमे जो प्रशस्ति पद्य २८ से ३७ तक गुणभद्राचार्यके प्रमुख शिष्य लोकसेनकृत लगी हुई है, उसमे उसका समय शक सं० ८२० ( वि० स० ६५५ ) दिया है । यह समय ग्रन्थका रचना-काल न होकर उसके पूजोत्सवका काल है, जैसा कि प्रशस्तिके 'भव्यवयँ प्राप्तेज्य सर्वसारं जगति विजयते पुण्यमेतत्पुराणम् (३६)' इस वाक्यसे जाना जाता है । और यह पूजामहोत्सव काल ग्रन्थको रचनासे अधिक वादका सालूम नही होता, जिसकी प्रेरणा स्वयं ग्रन्थकार अपनी प्रशस्तिके २७ वें पद्यमे कर गए थे ।' प्राय होता भी यही है कि यदि किसी महान् ग्रन्थकी रचनापर उसका पूजा महोत्सव मनाया जाता है तो वह उसकी सुन्दर लिपि आदिके कालको निकालकर अधिक समय वादका नही होता । यदि इस रचनाकालको पूजोत्सव के समय से अधिक-से-अधिक पाँच वर्ष पूर्वका मान लिया जाय, जिसमे लिपिकालके साथ ग्रन्थकारका कुछ जीवनकाल भी शामिल हो सकता है, तो उक्त पुराणका यह रचनाकाल शक स० ८१५ (विक्रम स ६५० ) के लगभग बैठता है । और इस तरह तत्त्वानुशासन के निर्माण - समय की पूर्व सीमा विक्रम स० ९०० के स्थान पर ६५० तक स्थिर हो जाती है - इससे पूर्वको वह रचना नही है ।
प्रस्तावना
अब देखना यह है कि उत्तर-सीमा जो वि० स० १२८५ है उसे पीछेकी ओर कहाँ तक ले जाया जा सकता है । वाह्य परीक्षण से प० आशाघरजीके पूर्ववर्ती कुछ ग्रन्य ऐसे मालूम पडे हैं जिनमे तत्त्वानुशासनके पयोको प्रत्यके नामसहित भी उद्धृत किया गया है, कुछ ग्रन्थोमे ग्रन्थनामके विना ही तत्त्वानुशासनके पद्य वाक्योको अपनाया गया है और कुछ ग्रन्थ ऐसे भी जान पड़े हैं जिनमे तत्त्वानुशासन के पद्य
१ तदेतदेव व्याख्येय श्रव्य भव्यैर्निरन्तरम् ।
चिन्त्य पूज्य मुदा लेख्य लेखनीय च भाक्तिकै ||२७||