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तत्त्वानुशासन
५ समयको पूर्वोत्तर-सीमाएँ और उसका निश्चय
अन्त परीक्षणसे मालूम होता है कि इस ग्रन्यपर श्रीकुन्दकुन्दचार्यके पचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार तथा मोक्षप्राभृतजैसे ग्रन्योका, उमास्वामी (ति)के तत्त्वार्शसूत्रका, स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्ड, स्वयभूस्तोत्र, देवागम तथा युक्त्यनुशामनका, श्रीपूज्यपादाचार्यकी सर्वार्थमिद्धि, ममाधित, इप्टोपदेश तथा सिद्धभक्ति आदिफा, अकलकदेवने तत्त्वार्थ राजवात्तिकका और भगवज्जिनसेनके आर्षग्रन्थ (महापुराण) का प्रभाव है । इन ग्रन्यों के वाक्योको कही शब्दश. कही अर्थश कही उभयरूपसे और कही कुछ परिवर्तनके साथ अपनाया गया है, जैसा कि गन्यके निम्न पद्यो और उनकी तुलनात्मकटिप्पणियो तथा ध्यास्यामोसे जाना जाता है -
पद्य न ० १८, १९, ३०, ३१ (पच स्तिकाय); ३०, ५२ (समयसारप्रवचनसार, ८२ (मोक्षप्राभृत), १४७ (नियमसार)। ५५, ५६, १८, १०० तत्त्वार्थसूत्र) । ५१ (रत्नकरण्ड); १५४ (देवागम); २४८ (स्वयभू०); २४६ (देवागम, युक्त्यनु०) । ५१, ५६, ५६, १११, २२२ (सर्वार्थसिद्धि), २३३, २३४ (सिद्धभक्ति) । ५७, ५६, ६२-६४, ६६ ६७, ७०, ७२ (तत्त्वार्थवा०) । २, ३६, ५०, ५४, ६१, ७०, ७२, ८३, ८४, ६०, ६२-६४, ६८, १०१, १२६, १८०, २२२, २३३, २४७ (आप)।
गिन अन्योके प्रभावकी ऊपर सूचना की गई है उनमे 'पाप' नामका महापुराण सबके बादकी कृति है और वह दो भागोमें विभक्त है-प्रथम भागका नाम 'आदिपुराण' और द्वितीय भागका नाम 'उत्तरपुराण' है । प्रथमभागके ४७ पर्वो मेसे ४२ पर्वोकी रचना भगवज्जिनसेनने और शेष पर्वोकी उत्तरपुराण-सहित रचना उनके प्रधान शिष्य गुणभद्राचार्यने की है। इस आर्ष ग्रन्थका २१वां पर्व एकमात्र ध्यानविषयसे ही सम्बन्ध रखता है और उसका इस ग्रन्य पर सबसे अधिक