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प्रस्तावना
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प्रभाव है । एक स्थान पर (पद्य ५४) 'धर्मो हि वस्तुयाथात्म्यमित्याऽ व्यभिधानत.' इस वाक्यके द्वारा 'पार्ष' नामका स्पष्ट उल्लेख भी किया गया है, और कही कही 'मागम के नामसे ही इसके वाक्योको
उल्लेखित किया गया है,जैसा कि ८४वे पद्यमे प्रयुक्त 'वनकायस्य ध्यानमित्यागमे वचः' इसे वाक्यकी व्याख्यासे प्रकट है। जिनसेनाचार्य ने जयघवला' टीकाको, जिसे उनके गुरु वीरसेनाचार्य अधूरी छोड गए थे, शक सवत् ७५६ मे पूरा किया है। सभवत उसके बाद ही उन्होने महापुराणके कार्यको अपने हाथमे लिया था, जिसे वे अधूरा छोडकर स्वर्गवासी हो गए। महापुराणके जिनसेन-रचित भागको श्लोक संख्या १०३८० है, जिनको रचनामे वृद्धावस्थाके कारण ५-६ वर्षसे कमका समय न लगा होगा, ऐसा प० नाघुरामजी प्रेमीने, अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' मे, जो अनुमान किया है वह प्राय ठीक जान पड़ता है, और इस तरह जिनसेनका स्वर्गवास-समय शक स०७६५ (वि० स०६००) के लगभग ठहरता है । यही समय विक्रमकी हवीं शताब्दीका अन्तिम भाग प्रस्तुत ग्रन्यके निर्माणको पूर्व-सीमा है । इससे पहले इसका निर्माण नहीं बनता।
१० आशाधर विक्रमकी तेरहवी शताब्दीके उत्तरार्घके विद्वान हैं, उन्होने इष्टोपदेश आदि टोकामओमे तत्त्वानुशासनके कितने ही पद्योको ग्रन्यके नाम-सहित भी उद्धृत किया है, किसी-किसी टीकामे उद्घृत पद्योके साथ रामसेनाचार्यका नाम भी दिया है। इष्टोपदेशकी टीकाके अपने द्वारा रचे जानेका उल्लख उन्होंने 'जिनयज्ञकल्प'की प्रशस्तिमे किया है, जो विक्रम स० १२८५मे लिखी गई है। इससे तत्त्वानुशासन वि० स० १२८५ से पूर्व विद्यमान था, उसके बादकी वह रचना नहीं है, इतना सुनिश्चित हो जाता है। और यही उसके निर्माण-समयकी उत्तर-सीमा है। ___ अब देखना यह है कि पूर्व-सीमाके समय स० ६०० और उत्तरसीमा-समय स० १२८५ के मध्यवर्ती इस ३८४ वर्षके लम्बे समयको