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तत्त्वानुशासन ग्रन्थके वाक्यादिको ग्रन्थ-नाम-सहित या विना नामके ही अपनाया गया अथवा उद्धृत किया गया है ।
उक्त परीक्षणसे पहिले मैं यहां पर इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि ग्रन्थमे ग्रन्थकारने अपने चार विद्या-गुरुओके जो नाम वीरचन्द, शुभदेव, महेन्द्रदेव और विजयामर (विजयदेव)के रूपमे दिये हैं उनका कोई परिचय साथमे नही दिया-किसी खास विशेषणका भी उनके साथमें प्रयोग नही किया है, जिससे उनके व्यक्तित्व तथा समयका कुछ पता चलकर उनके समयका निर्धार होता और उससे ग्रन्थकारके समयको निश्चित किया जाता, क्योकि इन नामोके भी दूसरे विद्वान हुए हैं, और इसलिए नाममात्रके उल्लेखसे उनमेंसे किसीका ग्रन्थकारके विद्यागुरुके रूपमे सहज ही ग्रहण नही किया जा सकता। दीक्षागुरु नागसेनके नामके साथ दो विशेषण 'पुण्यमूर्ति' और 'उद्धचरित्रकीर्ति' जरूर दिये हैं, इन विशेषणोपरसे उनके महान् व्यक्तित्वका पता तो चलता है, परन्तु उन्हे पूरी तौरसे पहचाना नही जा सकता, क्योकि नागसेन नामके भी कई विद्वान आचार्य हो गए हैं, जिनमेसे कुछका परिचय इस प्रकार है:
(१) वे नागसेन जो दश-पूर्व के पाठी थे और जिनका समय विक्रमसवत्से कोई २५० वर्ष पूर्वका है।
(२) वे नागसेन गुरु जो ऋषभसेनगुरुके शिष्य थे, जिन्होंने सन्यासविधिसे श्रवणवेल्गोलमे चन्द्रगिरिपर्वत पर वेह-त्याग किया था, जिसका श्रवणवेलगोलके शिलालेख न० १४ (३४) मे उल्लेख है और उसमे उनकी महत्त्वके सात विशेषणोद्वारा स्तुतिको लिए हुए निम्न श्लोक भी दिया हुआ है -
नागसेनमनघं गुणाधिक नागनायफजितारिमडल । राजपून्यममलश्रियास्पद कामवं हतमद नमाम्यह ॥