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प्रस्तावना
नागसेनके शिष्यरूपसे रामसेनका उल्लेख करके रामसेनकी शिष्यपरम्पराका उल्लेख किया गया हो। पट्टावलियोमे प्रायः पट्ट-शिष्योका उल्लेख रहता है। हो सकता है कि रामसेन नागसेनके पट्टशिष्य न हो, उन्होने नागसेनको अपना 'पट्टगुरु' लिखा भी नही-साफ तौर पर 'दीक्षागुरु' लिखा है। एक दीक्षागुरुके अनेक दीक्षित-शिष्य हो सकते हैं और हुए हैं, परन्तु पट्ट-शिष्य एक ही होता है। इसीसे पट्टावलियोमे एक दीक्षागुरुके सब शिष्योका नाम प्राय नहीं रहता, पट्टशिष्यको छोडकर दूसरे शिष्योकी परम्पराएं अलगसे चला करती हैं, और इस तरह एक पट्टरूपी वटवृक्षकी कुछ शाखाएं वृक्षसे अलग होकर अन्यत्रारोपित हुई अलगसे ही फलने-फूलने लगती हैउनके मूलका पता चलना तब वहुधा कठिन हो जाता है। सभवत. यही स्थिति रामसेनकी जान पड़ती है, वे किसीके पट्टशिष्य न होकर स्वयं पट्टप्रस्थायक तथा अन्वयकारक हुए हो एसा मालूम होता हैं और शायद इसी लिये भनेकोने अपनेको उनके (रामसेनके) अन्वय (वश) में होना तो लिखा है परन्तु उनके दीक्षागुरुका नाम साथमे नही दिया। इससे वे ये ही ग्रन्थकार रामसेन हैं या कोई दूसरे रामसेन, इसको पहचाननेमे बडी कठिनाई उपस्थित हो रही है । अस्तु ।
ऐसी स्थितिमें हमे सबसे पहले ग्रन्थके निर्माणकालका पता चलानेकी जरूरत है, जिससे उस समयके समीप जो कोई रामसेन नामके महान् विद्वान् हुए हो उनके साथ इस ग्रन्थके कर्तृत्वका सम्बन्ध जोडा जा सके । इसके लिये ग्रन्थके अन्त परीक्षण और वहिःपरीक्षण दोनोकी जरूरत है। अन्त परीक्षणके द्वारा यह मालूम किया जाना चाहिये कि इस ग्रन्थमे पूर्ववर्ती किस-किस ग्रन्थ या ग्रन्थकारादिका नामोल्लेख है और किस ग्रन्थके किन वाक्योको अपनाया गया है अथवा ग्रन्थमे कहां उनका प्रभाव लक्षित है । और बहिःपरीक्षणके द्वारा यह खोजनेकी जरूरत है कि उत्तरवर्ती किस-किस ग्रन्थमे इस