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________________ ध्यान-शास्त्र २२३ - इसमे शब्दात्मक-ज्योति और परमेष्ठीका परस्पर वाच्यवाचक सम्बन्ध है ऐसा उल्लेख किया है और यह वात 'अर्हमित्यक्षर-ब्रह्म वाचक परमेष्ठिन ' तथा'शब्दब्रह्म परब्रह्मके वाचकवाच्य नियोग' जैसे वाक्योंसे भी जानी जाती है। वाच्यके वाचकरूप 'नामध्येय'के अन्तर्गत जिन मत्रपदोका इस ग्रन्थ (पद्य नं० १०८ आदि) मे तथा अन्यत्र पदस्थध्यानके वर्णनमे उल्लेख है, वे सब ध्वनिरूप शब्दज्योतियां हैं जो अर्हन्तादिकी वाचक हैं। अर्हन्तजिनेन्द्रका दिव्यध्वनिरूप सारा हो वाड्मय शब्दज्योतिके रूपमें स्थित है। __ भाष्यका अन्त्यमगल और प्रशस्ति मोहादिक रिपुवोको जिनने, जीत 'जिनेश्वर' पद पाया, वीतराग-सर्वज्ञ-ज्योतिसे, मोक्षमार्गको दर्शाया । उन श्रीमहावीरको जिसने, भक्तिभावसे नित ध्याया; आत्म-विकास सिद्ध कर उसने, निर्मल-शास्वत-सुख पाया ॥१॥ गुरु समन्तभद्रादिक प्रणमू, ज्ञान-ध्यान-लक्ष्मी-भर्तार, जिन-शासनके अनुपम सेवक, भक्ति-सुधा-रस-पारावार । जिनकी भक्ति प्रसाद बना यह, रुचिर-भाष्य सबका हितकार; भरो ध्यानका भाव विश्वमे, हो जिससे जगका उद्धार ॥२॥ अल्पबुद्धि 'युगवीर' न रखता, ध्यान-विषय पर कुछ अधिकार, आत्म-विकास-साधनाका लख ध्यान-क्रियाको मूलाधार । रामसेन-मुनिराज-विनिर्मित, ध्यान-शास्त्र सुख-सम्पत-द्वार, उससे प्रभवित-प्रेरित हो यह, रचा भाष्य आगम-अनुसार ॥३॥
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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