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तत्त्वानुशासन समान यथार्थवाचिका होती है। इस प्रकार विविध-ज्योतिसे युक्त और देवोंसे पूजित महत्परमात्माका स्मरण करके जो प्रार्थना की गई है वह ग्रन्यकारमहोदयको ज्योतित्रयरूप महत्परमात्मा बननेकी भावनाका द्योतन करती है।
यहां भगवज्जिनसेनाचार्य-शिष्य-श्रीगुणभद्राचार्यप्रणीतउत्तरपुराण-गत-कुन्धुजिन-चरितके अन्तिम मगलपद्यका स्मरण हो आता है, जो इस प्रकार है
देहज्योतिपि यस्य शक्रसहिताः सर्वेऽपि मग्नाः सुराः ज्ञानज्योतिषि पंचतत्त्वसहित मग्नं नभश्चाखिलम् । लक्ष्मीधाम दघहिधूय वितत-ध्वान्तं स धामद्वयं । पंथानं कथयत्वनन्तगुणधृत्कुन्युभवान्तस्य वः ॥(६४-५५)
इसमे कुन्थुजिनेन्द्रका स्मरण करते हुए उनकी दो ज्योतियोका ही उल्लेख किया है-एक देहज्योति और दूसरी ज्ञानज्योति । देहज्योतिमे इन्द्रसहित सब देवताओको निमग्न बतलाया है, जो उनके समवशरणादिको प्राप्त हुए हैं, और ज्ञानज्योतिमे पचतत्त्व (द्रव्य तथा भूत। सहित सारे आकाशको व्याप्त प्रकट किया है । तीसरी शब्दज्योतिका कोई उल्लेख नही किया। इस ज्योतिका उपर्युक्त उल्लेख यहाँ ग्रन्थकारकी अपनी विशेषताको लिये हुए जान पड़ता है। शब्दात्मक भी ज्योति होती है इसका वादको श्रीशुभचन्द्राचार्यने अपने ज्ञानार्णव-ग्रन्थके निम्न पद्यमे उल्लेख किया है .
यस्माच्छब्दात्मक ज्योतिः प्रसृतमतिनिर्मलम् । वाच्य-वाचक-सम्बन्धस्तेनैव परमेष्ठिन. ॥ ३८-३२ ॥