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________________ ध्यान - शास्त्र २२१ ' जिसकी देह - ज्योतिमे जगत ऐसे डूबा रहता है जैसे कोई क्षीरसागरमे स्नान कर रहा हो; जिसकी ज्ञान- ज्योतिमे भूः ( अधोलोक ), भुवः ( मध्यलोक) और स्वः (स्वर्गलोक ) यह त्रिलोकीरूप ज्ञेय (ओम् १) अत्यन्त स्फुटित होता है और जिसकी शब्द- ज्योति (वारणी के प्रकाश) मे ये स्वात्मा और परपदार्थ दर्पrat तरह प्रतिभासित होते हैं, वह देवोसे पूजित श्रीमान् जिनेन्द्र भगवान् तीनों ज्योतियोकी प्राप्तिके लिये हमारे सहायक (निमित्तभूत) होवें ।' व्याख्या - यह पद्य भी अन्त्य - मगलके रूपमे है । इसमे जिनेन्द्र(अर्हन्तदेव) को तीन ज्योतियोके रूपमे उल्लेखित किया है -- एक देहज्योति, दूसरी ज्ञानज्योति और तीसरी शब्दज्योति । देहज्योतिका अभिप्राय उस द्युतिसे है जो केवलज्ञानादिरूप अनन्तचतुष्टयकी प्रादुर्भूतिके साथ शरीरके परमऔदारिक होते हो प्रभामण्डलके रूपमे सारे शरीर से निकलती है । उस देहज्योतिमे जगत मज्जनकी जो बात कही गई है उससे उतना ही जगत ग्रहण करना चाहिये जहां तक वह ज्योति प्रसारित होती है, और उसे दुग्धाम्बुराशिकी जो उपमा दी गई है उससे यह स्पष्ट है कि वह दुग्धवर्ण-जैसी शुक्ल होती है । ज्ञानज्योतिका अभिप्राय उस आत्मज्योतिका है जिसमे सारे जगतके सभी चराचर पदार्थ यथावस्थितरूपमें प्रतिबिम्बित होते हैं— कोई भी पदार्थ अज्ञात नही रहता । और शब्दज्योतिका तात्पर्य उस दिव्यध्वनिरूप वाणीका है जो ज्ञानज्योतिमें प्रतिविम्वित हुए पदार्थों की दर्पणके १ 'ओम् यह श्रव्यय - शब्द 'ज्ञेय' अर्थ मे भी प्रयुक्त होता है, ऐसा 'शब्दस्तोममहानिघि' कोदाकी निम्न उल्लेखसे जाना जाता है और वही यहां सगत प्रतीत होता है - "ओम् – प्रणवे, आरम्भे, स्वीकारे ।............ - अनुमती, अपाकृती, अस्वीकारे, मगले, शुभे, ज्ञ ेये, ब्रह्मणि च ।" •
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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