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तत्त्वानुशासन _ 'इस रचनामे छद्यस्थताके कारण अर्य तथा शब्दोंके प्रयोगमें जो कुछ स्खलन हुआ हो या त्रुटि रही हो उसके लिये श्रुतदेवता मुझ भक्तिप्रधानको क्षमा करें।'
व्याख्या-यहाँ ग्रन्थकारमहोदय, अपनेको भक्ति-प्रधान बतलाते हुए, अपनी उस थोडी सी भी त्रुटि अथवा भूलके लिये श्रुतदेवतासे क्षमा याचना करते हैं जो छद्मस्थता-असर्वज्ञताके कारण इस ग्रन्थमे अर्थों तथा शब्दोंके विन्यासमे हुई हो। इससे ग्रन्थ-रचनामे महकारके त्यागपूर्वक विनम्रताका ज्ञापन होता है। ___ यहां श्र तदेवताका अभिप्राय उस सरस्वतीदेवी जिनवाणीसे है जो श्रीअहज्जिनेन्द्रके मुख-कमलमे वास करती है और जिससे उस श्रुतकी सम्यक् उत्पत्ति होती है जो पापोका नाश करनेवाला है, जैसा कि 'पापभक्षिणी-विद्या' के मत्र 'ॐ अहन्मुखकमलवासिनि पापात्मक्षयकरि श्रु तज्ञानज्वालासहस्रप्रज्वलिते सरस्वति मत्पापं हन हन०' जैसे पदोसे प्रकट है । अत श्रुतविषयक भूलो एव अटियोके लिये, जो कभी-कभी भक्तोसे अल्पज्ञतावश हो जाया करती हैं, उस थ तके अधिष्ठातदेवसे क्षमा याचना करना शिष्टजनोके लिए न्यायप्राप्त है और ऐसे विनम्रशील भक्तजन अपनी भूल तथा गलतीके लिए क्षमाके पात्र होते ही हैं । इसी वातको 'मे भवितप्रधानस्य' पदोके प्रयोग-द्वारा सूचित किया गया है।
भव्यजीवोको आशीर्वाद वस्तु-याथात्म्य-विज्ञान-श्रद्धान-ध्यान-सम्पदः । भवन्तु भव्य-सत्वानां स्वस्वरूपोपलब्धये ॥२५५॥ 'वस्तुओके याथात्म्य (तत्त्व) का विज्ञान, श्रद्धान और ध्यान