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ध्यान - शास्त्र
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देवसेनाचार्यने उस पदविहीन पगु-मनुष्य-जैसी बतलाई है जो मेरु-शिखर पर चढना चाहता है । इससे स्पष्ट है कि विना ध्यानके दु खहेतुक - कर्मोसे छुटकारा अथवा मोक्ष नही बनता और इसी से उसे यहाँ ध्यानपूर्वक तथा अन्यत्र ( प ० ३३ मे) निश्चय और व्यवहार दोनो प्रकारके मोक्षमार्गकी प्राप्तिका आधार लाया है और यही ध्यानके विषयको इस ग्रन्थमे प्रपचित करनेका प्रधान हेतु है ।
ध्यानविषयको गुरुता और अपनी लघुता यद्यप्यत्यन्त गम्भीरमभूमिर्माहशामिदम् । प्रावतिषि तथाप्यत्र ध्यान-भक्ति-प्रचोदितः ॥ २५३॥
'यद्यपि यह ध्यान विषय अत्यन्त गम्भीर है और मेरे जैसोंको यथेष्ट पहुँच से बाहरकी वस्तु है, तो भी ध्यान भक्तिसे प्रेरित हुआ मैं इसमें प्रवृत्त हुआ हूँ ।'
व्याख्या- यहां आचार्य महोदयने ध्यान विषयकी गुरुतागम्भीरता और अपनी लघुताका ज्ञापन करते हुए अपनी ध्यानभक्तिको ही इस ध्यान विषयके प्रपंचनमे प्रधान कारण बतलाया है । इससे मालूम होता है कि ग्रन्थकारमहोदय ध्यान और उस की शक्तियो विषयमे सच्ची श्रद्धा-भक्ति रखते थे । वही इस ग्रन्थके निर्माणमे मुख्यत प्रेरक हुई है ।
रचना स्खलनके लिये श्रुतदेवता से क्षमा-याचना यत्र स्खलित किचिच्छाद्मस्थ्यादर्थ - शब्दयोः । तन्मे भक्तिप्रधानस्य क्षमतां श्रुतदेवता ॥२५४॥
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१ चलण- रहिओ मम्मो जह वछइ मेरुसिहरमारहिउ । तह भारोण विहोणो इच्छइ कम्मक्खय साहू || ( तत्त्वसार) २ ज श्रुतदेवता ।