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तत्त्वानुशासन और बन्ध-मोक्षकी बात कैसे बन सकती है ? नही बन सकती। बन्धको यदि सर्वथा नित्य माना जाय तो वह कारणजन्य नहीं ठहरता, इससे बन्धहेतु नही बनता तथा बन्धके अभावरूप मोक्ष नहीं बन सकता और मोक्षको सर्वथा नित्य मानने पर मोक्षहेतु नही बनता और न उसको बन्धपूर्वक कोई व्यवस्था ठीक बैठती है। एक ही जीवके बन्ध भी सर्वथा नित्य और मोक्ष भी सर्वथा नित्य ये दोनो विरोधी बाते घटित नही हो सकती, और इसलिये बन्धादि-चतुष्टयकी बात उनके मतमे किसी तरह भी सगत नही कही जा सकती।
क्षण-क्षणमे निरन्वय-विनाशरूप अनित्यत्वका एकान्त माननेवालोंके भी किसी जीवके स्वकृत कर्मके फलस्वरूप सुख-दुःख, जन्मान्तर और बन्ध-मोक्षादिकी बात नहीं बनती। इस मान्यतामे प्रत्यभिज्ञान, स्मृति और अनुमान जैसे ज्ञानोका अभाव होनेसे कार्यका आरम्भ भी नही बनता, फलकी बात तो दूर रही । और कार्यको सर्वथा असत् माना जानेसे --उपादानकारणमे भी उसका कथचित् अस्तित्व स्वीकार न किया जानेसे-कार्यकी उत्पत्ति आकाशके पुष्पसमान नही बनती, उपादान कारणका कोई नियम नही रहता और इसलिये गेहूँ बोयेगे तो गेहूँ ही उत्पन्न होगे ऐसा कोई आश्वासन नहीं बनता--सर्वथा असत्का उत्पाद होनेसे गेहूँके स्थान पर चना आदि किसी दूसरे अन्नादिका १. पुण्य-पाप-क्रिया न स्यात् प्रेत्यभाव फल कुतः । बन्ध-मोक्षौ च तेषा न येषा व नाऽसि नायकः॥
--देवागम ४० २. क्षणिककान्तपक्षऽपि प्रेत्यभावाद्यस भव. । प्रत्यभिज्ञाद्यभावान कार्यारम्भः कुतः फलम् ॥
-देवागम ४१