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ध्यान-शास्त्र तीसरे पद्यमे यह कहा गया है कि जो बन्धादि-चतुष्टयके अस्तित्वको अपने मतमे बनाये रखना चाहते हैं उन्हे अनेकान्तको समझ-बूझकर अपनाना चाहिये, जो कि चतुष्टयके प्रत्येक अगमे व्याप्त है और प्रमाणसे भी प्रसिद्ध है।
किसी भी वस्तुका वस्तुत्व उसकी अर्थक्रियाके विना नहीं बनता । यदि अर्थक्रिया होती है तो उसमे क्रम-अक्रमका होना अवश्यभावी है, क्योकि वस्तु गुण-पर्यायरूप है ('गुणपर्ययवद्रव्यं") जिसमे गुण सदा सहभावी एव सर्वा गव्यापी होनेसे अक्रम (युगपत्) रूपसे रहते हैं और पर्यायें क्रमवर्तिनी होती हैं। इसोसे अर्थक्रिया क्रम-अक्रम उभय रूपको लिये रहती है-पर्यायो या विशेषोकी दृष्टिसे वह क्रमरूप और गुणो या द्रव्य-सामान्यकी दृष्टिसे अक्रम(योगपद्य)रूप कही जाती है। जो लोग वस्तुतत्त्वको सर्वथा नित्य या सर्वथा क्षणिक (अनित्य) आदि एकान्तरूप मानते हैं उनके मतमे यह क्रम-अक्रम तथा बन्ध-मोक्षकी बात नही बनती । सर्वथा नित्यत्वका एकान्त मानने पर वस्तुमे किसी प्रकारकी विक्रिया हो घटित नही होती-कोई प्रकारका परिणमन ही नहीं बनता-वह सदा कूटस्थवत् एक रूपमे ही स्थिर रहती है और कर्ता-कर्म-करणादि कारकोका पहले ही अभाव होता है । क्योकि जब सब कुछ सर्वथा नित्य है, किसीका बनना, बिगडना, करना, कराना, उत्पन्न होना आदि कुछ नही, तब कारकोकी आवश्यकता ही क्या रह जाती है ? ऐसी स्थितिमे किसी जीवके पुण्य-पाप क्रिया, क्रियाका फल, जन्मान्तर, सुख-दुख १. "नित्यत्वं कान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते।
प्रागेव कारकाभाव. क्व प्रमाण क्व तत्फलम् ॥" -देवागम ३७ "भावेपु नित्येषु विकार-हानेर्न कारक-व्यापृत-कार्ययुक्ति । न बन्ध-भोगी न च तद्विमोक्षः समन्तदोष मतमन्यदीय ॥"
-युक्त्यनुशासन ८