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________________ २०८ तत्त्वानुशासन अभाव, नित्य, अनित्य, एक, अनेक आदि एकान्त-पक्षोको लिए हुए हैं-उनके बन्ध-मोक्षादिकी कथनी वस्तुत बनती नही अथवा ठीक नहीं बैठती-भले ही वे उसके कितने ही गीत क्यो न गाया करे। बन्धादि-चतुष्टयके न वननेका सहेतुक स्पष्टीकरण अनेकान्तात्मकत्वेन व्याप्तावत्र' क्रमाऽक्रमौ। ताभ्यामर्थक्रिया व्याप्ता तयाऽस्तित्वं चतुष्टये ॥२४॥ मूल-व्याप्तुनिवृत्तौ तु क्रमाऽक्रम-निवृत्तितः । क्रिया-कारकयोद्म शान्न स्यादेतच्चतुष्टयम् ॥२५॥ ततो व्याप्ता समस्तस्य प्रसिद्धश्च प्रमाणतः। चतुष्टय-सदिच्छद्भिरनेकान्तोऽनुगम्यताम् ॥२५॥ 'इस चतुष्टयमें अनेकान्तात्मकत्वके साथ क्रम और अक्रम व्याप्त हैं, कम और अक्रमके साथ अर्थक्रिया व्याप्त है और अर्थक्रियाके साथ चतुष्टयका अस्तित्व व्याप्त है। मूल व्याप्ता अनेकान्तकी निवृत्ति होनेपर क्रम-अक्रम नहीं बनते, क्रम-अक्रमके न बननेसे अर्थक्रिया नहीं बनती और अर्थक्रियाके न बननेसे यह (बन्ध-मोक्ष और उभय हेतुरूप) चतुष्टय नहीं बनता। अत. उक्त चतुष्टयके अस्तित्वको इच्छा रखनेवालोको सारे चतुष्टयका जो व्याप्ता और प्रमाणसे प्रसिद्ध 'अनेकान्त' है उसका सविवेक-ग्रहण-पूर्वक अनुसरण करना चाहिये। व्याख्या-पिछले पद्यमे सर्वथा एकान्तवादियोंके बन्धादिचतुष्टयके न बननेकी जो बात कही गई है वह क्यो नही बनती, उसीको यहाँ प्रथम दो पद्योमे स्पष्ट किया गया है और फिर १. ज व्याप्त्या चात्र । सि जु व्याप्तावेतौ । २. मु मे माज ऽवगम्यताम् ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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