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________________ ध्यान - शास्त्र 9 एकान्तवादियोके बन्धादि - चतुष्टय नही बनता यद्वा बन्धश्च मोक्षश्च तद्ध ेतू' च चतुष्टयम् । नास्त्येवैकान्त- रक्तानां तद्व्यापकमनिच्छताम् ॥ २४८ ॥ २०७ ' श्रथवा बन्ध और मोक्ष, बन्धहेतु और मोक्षहेतु यह चतुष्टय - चारोंका समुदाय -- उन एकान्त - श्रासक्तोके - सर्वथा एकान्तवादियो के नहीं बनता, जो कि चारोंमें व्याप्त होनेवाले तत्त्वको ( अनेकान्तको) स्वीकार नहीं करते ।' - व्याख्या - यहाँ यह बतलाया गया है कि सर्वथा एकान्तचादियोके केवल मोक्ष ही नही, किन्तु बन्ध, बन्धका कारण, मोक्ष और मोक्षका कारण ये चारो ही नही बनते, क्योकि वे इन चारोमे व्यापक तत्त्व जो 'अनेकान्त' है उसे इष्ट नही करते- नही मानते । वास्तवमे सारा वस्तु-तत्त्व अनेकान्तात्मक है और इससे वे बन्ध-मोक्षादिक भी अनेकान्तात्मक हैं । इनके आत्मा अनेकान्तको न मानने से इनका कोई अस्तित्व नही बनता। इसी बातको आगे पद्योमे स्पष्ट किया गया है । इस अवसर पर इतना और जान लेना चाहिये कि स्वामी समन्तभद्रने इन चारोका हो नही, किन्तु इनसे सम्बद्ध बद्धात्मा, मुक्तात्मा और मुक्तिफलके अस्तित्त्वका भी स्याद्वा दियो ( अनेकान्तवादियो) के ही विधान करते हुए एकान्तवादियों के उन सबके अस्तित्वका निषेध किया है, जैसा कि उनके स्वयम्भूस्तोत्र - गत निम्न वाक्यसे प्रकट है - बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतू बद्धश्च मुक्तश्च फल च मुक्त | स्याद्वादिनो नाथ तवैव युक्त' नैकान्तदृष्ट स्त्वमतोऽसि शास्ता ॥१४ इससे स्पष्ट है कि जो सर्वथा एकान्तवादी हैं -- सर्वथा भाव, १. ज तद्वत्त च ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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