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ध्यान-शास्त्र
२११ उत्पाद भी हो सकता है । ऐसी स्थितिमें उक्त बन्धादि-चतुष्टयकी . कोई बात ठीक नही बैठती। एक हो क्षणवर्ती जीवके बन्ध और मोक्ष दोनो घटित नही हो सकते ।
अद्वैत-एकान्तपक्षकी मान्यतामे शुभाशुभकर्मद्वैत, सुख-दुःखफलद्वत और लोक परलोकद्वतकी तरह बन्ध-मोक्षका द्वैत भी नही बनता । तब बन्ध-मोक्षके हेतुओका त तो स्वत ही रद्द हो जाता है। किसी भी प्रकारके द्वतको स्वीकार करनेसे अद्वत एकान्तको बाधा पहुँचती है । इसी तरह सर्वथा पृथक्त्वादि दूसरे एकान्त-पक्षोमे भी बन्धादि-चतुष्टयके न बन सकनेकी बातको भले प्रकार समझा जा सकता है। इसके लिये तथा प्रकृतविषयको विशेष जानकारीके लिये स्वामी-समन्तभद्रके देवागम और उसके अष्टसहस्रो आदि टीकाग्रन्थो तथा युक्त्यनुशासन जैसे ग्रन्थोको देखना चाहिये । यहां पर ग्रन्थकारमहोदयने जो कुछ सक्षेपमें कहा है वह बहुत ही जचा-तुला है।
ग्रन्थमे ध्यानके विस्तृत वर्णनका हेतु सारश्चतुष्टयेऽप्यस्मिन्मोक्षः स ध्यानपूर्वकः । इति मत्वा मया किंचिद्ध्यानमेव प्रचितम् ॥२५२॥
'इस चतुष्टयमें भी जो सारपदार्थ है वह मोक्ष है, और वह ध्यानपूर्वक प्राप्त होता है-ध्यानाराधनाके विना मोक्षकी प्राप्ति नही होतो-यह मानकर मेरे द्वारा ध्यान विषय ही थोड़ा प्रपंचित हुआ अथवा कुछ स्पष्ट किया गया है।' १ यद्यसत्सर्वथा कार्य तन्माऽजनि खपुष्पवत् ।
मोपादान-नियमोभून्माऽऽश्वास कार्यजन्मनि ॥ देवागम ४२ २ नबन्धमोक्षो क्षणिकैकसस्थो। -युक्त्यनु० १५ ३. मुज सद्ध्यानपूर्वक. ।
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