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________________ ०४ तत्त्वानुशासन इसमे यह भाव दर्शाया है कि जिस प्रकार किसी मनुष्यको कोई विषधर सर्प काट लेता है तो वह निम्बवृक्षके कडवे पत्तोको भी रुचिसे चबाने लगता है उसे वे पत्ते कड़वे मालूम न होकर मधुर जान पड़ते हैं-और उसका यह रुचिसे नीम चवाना इस बातका प्रमाण होता है कि उसे अवश्य ही सर्पने डसा है, किसी दूसरे जन्तुने नही । उसी प्रकार जिस मानवको जैन-सन्तोका इन्द्रिय-विषयोमे सुखका निषेधक वचन अच्छा मालूम नही होता और वह उसके विपरीत विषय-सुखको ही सुख समझता है तो समझना चाहिये कि वह महामोहरूप कर्म-विषधरका डसा है, जिससे उसका विवेक ठीक काम नही करता। मुक्तात्माओके सुखकी तुलनामे च क्यिो-देवोका सुख नगण्य यदत्र चक्रिणां सौख्यं यच्च स्वर्गे दिवौकसाम् । कलयाऽपि न तत्तल्य सखस्य परमात्मनाम ॥२४६।। 'जो सुख यहाँ-इस लोकमे-चक्रवतियोंको प्राप्त है और जो सुख स्वर्गमें देवोंको प्राप्त है वह परमात्माप्रोके सुखकी एक कलाके-बहुत ही छोटे अशके-भी बराबर नहीं है।' ___व्याख्या-यहाँ मुक्तिको प्राप्त परमात्माके सुखकी ऊँचे से ऊँचे सासारिक सुखके साथ तुलना करते हुए यह घोषित किया गया है कि जो सुख चक्रवतियो तथा स्वर्गाके देवोको प्राप्त है, वह मुक्तात्माओके सुखके एक छोटेसे अशकी भी बराबरी नहीं कर सकता और इस तरह मुक्तात्माओके सुख-माहात्म्यको यहाँ और विशेषरूपसे ख्यापित किया गया है। मुक्तात्माओका ‘परमात्मा' रूपमे जो उल्लेख यहाँ किया गया है वह जैन-शासनकी अपनो विशेषता है, क्योकि जैन-शासनमे एकेश्वरवादियोकी तरह किसी एक व्यक्तिविशेषको ही परमात्मा
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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