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________________ । ध्यान-शास्त्र २०३ कर्मों के प्रभावको लिये हुए होनेसे मोक्षसुखके विपरीत है । उसे दुखके हेतुभूत बन्धका कारण होनेसे वस्तुत दुखरूप ही बतलाया है । इस विषयमे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके प्रवचनसारकी 'सपर बाधा-सहिय' इत्यादि गाथा भी ध्यानमे लेने योग्य है, जिसे चौथे पद्यकी व्याख्यामे पाद-टिप्पणी (फुट नोट) द्वारा उद्धृत किया जा चुका है। ___ इन्द्रिय-विपयोसे सुख मानना मोहका माहात्म्य तरमोहस्यैव माहात्म्य विषयेभ्योऽपि यत्सुखम् । यत्पटोलमपि स्वादु श्लेष्मणस्तद्विजृम्भितम् ॥२४५॥ 'इन्द्रिय-विषयोसे भी जो सुख माना जाता है वह मोहका ही माहात्म्य है जो विषयोंसे सुख मानता है समझना चाहिये वह मोहसे अभिभूत है। (जैसे) पटोल (कटु वस्तु) भी जिसे मधुर मालूम होती है तो वह उसके श्लेष्मा (कफ) का माहात्म्य हैसमझना चाहिये उसके शरीरमे कफ बढा हुआ है। व्याख्या-पिछले एक पद्य (२४१)मे शिष्यकी जिस मान्यताको मोह बतलाया गया था उसीको यहाँ एक उदाहरण-द्वारा स्पष्ट करते हुए लिखा है कि जिस प्रकार पटोल (पडवल पत्र) जैसी कडवी वस्तु भी यदि किसीको मधुर मालूम होती है तो वह उसके कफाधिक्यका माहात्म्य है उसी प्रकार इन्द्रियविपयोमे भी जो वास्तविक सुख मानता है तो वह उसके मोहका ही माहात्म्य है, जिसने उसके विवेकको विकृत कर रक्खा है। यहाँ इस विषयसे सम्बन्ध रखनेवाली किसी सन्तकी एक दूसरी उक्ति भी ध्यानमे लेने योग्य है, जो इस प्रकार है - सर्प-डसो तब जानिये जब रुचिकर नीम चबाय । कर्म-उसो तब जानिये जब जैन-बैन न सुहाय ।।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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