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ध्यान-शास्त्र
२०५ नही माना गया है। उसकी दृष्टिमे सभी मुक्तजीव परमात्मा हैंचाहे वे जीवन्मुक्त हो या विदेहमुक्त । जीवन्मुक्तोको शरीरसहित होनेके कारण सकल-परमात्मा और विदेहमुक्तोको शरीर-रहित होनेके कारण निष्कल-परमात्मा कहते हैं। इससे परमात्मा एक नही किन्तु अनेक हैं, यही 'परमात्मनाम्' पदके बहुवचनात्मक प्रयोगका आशय है।
पुरुषार्थोमे उत्तम मोक्ष और उसका अधिकारी स्याद्वादी अतएवोत्तमो मोक्षः पुरुषार्थेषु पठ्यते । 'स च स्याद्वादिनामेव नान्येषामात्म-विद्विषाम्।।२४७।। ___ 'इसी लिये सब पुरुषार्थोमे मोक्ष उत्तमपुरुषार्थ माना जाता है। और वह मोक्ष स्याद्वादियोके-अनेकान्तमतानुयायियोके-ही बनता है, दूसरे एकान्तवादियोके नहीं, जो कि अपने शत्र आप हैं।'
व्याख्या-चूकि मोक्षसुखको तुलनामे ससारका बड़े से बड़ा सुख भी नगण्य है इसी लिये धर्म, अथ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थोंमे मोक्षपुरुषाथको उत्तम माना गया है । यह मोक्षपुरुषार्थ किनके बनता है ? कौन इसके स्वामी अथवा अधिकारी हैं ? इस शकाका समाधान करते हुए, यहाँ यह स्पष्ट घोषणा की गई है कि यह मोक्षपुरुषार्थ स्याद्वादियो-अनेकान्तवादियोके ही बनता है, एकान्तवादियोके नही-भले ही एकान्तवादो इसके कितने ही गीत क्यो न गावे । यहाँ एकान्तवादियोको स्वशत्र बतलाया है जो स्वशत्रु हो उनका परशत्रु होना स्वाभाविक ही है। इसीसे स्वामी समन्तभद्रने एकान्ताग्रह-रक्तोको स्व-पर-वैरी १ युक्त स्याद्वादिना ध्यान नान्येपा दुई शामिदम् ।
(आर्ष २१-२५८)