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प्रस्तावना
इससे यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि यह ग्रन्थ 'नागसेन का नही, किन्तु 'रामसेन' का बनाया हुआ है । 'नाग' और 'राम' ये दोनो शब्द लिखने में बहुत कुछ मिलते-जुलतेसे मालूम होते हैं। हस्तलिखित ग्रन्थोके पत्र वर्षा आदिके कारण अक्सर चिपट जाया करते हैं और उनको छुडानेमे किसी-किसी अक्षरका कुछ भाग उडकर उसकी आकृति बदल जाया करती है। ऐसी हालतमे यदि किसी लेखकने 'राम' के स्थानपर 'नाग' पढकर वैसा लिख दिया हो तो इसमे कुछ भी आश्चर्य नही है। और यह भी सभव है कि पहले पद्यमे जो नागसेन लिखा था उसीके खयाल तथा सस्कारसे दूसरे पद्यमे भी नागसेन लिखा गया हो और इस तरहपर लेखकसे भूल हुई हो। तत्त्वानुशासनकी इस छपी हुई प्रतिमे वैसे भी पचासो अशुद्धियां पाई जाती हैं। यदि वम्बईके मन्दिरकी वह प्रति बिल्कुल इसीके मुताविक है तो कहना होगा कि वह प्रति बहुत कुछ अशुद्ध है और उसमे ऐसी भूलका हो जाना कोई बडी वात नही है।"
___ इसके सिवाय, यह भी लिखा था कि "५० आशाघारजीने इन (रामसेन) के लिये बहुवचनान्त 'पूज्य' शब्दका प्रयोग किया है, जिससे ये कोई बडे आचार्य मालूम होते हैं । अब यह बात और भी स्पष्ट हो गई है । प० आशाधरजीने भगवती आराधना (मूलाराधना) की टीकामे, इस ग्रन्थके कितने ही पद्योको उद्धृत करते हुए, एक स्थानपर (गा० १७०७ की टीका मे) "तत्र भवन्तो भगवद्रामसेनपादा" इस वाक्यके साथ तत्त्वानुशासनके 'यथोक्तलक्षणो ध्याता' से लेकर 'स्वरूप पररूप वा ध्यायेदतविशुद्धये' तक सात पद्य उद्धृत किये हैं, जो प्रथमे न० ८६ से १५ तक पाये जाते है, और इस तरह गथकार रामसेनके वचनोको भगवान रामसेनके वचन सूचित करके उन्हें भगवज्जिनसेनाचार्य-जैसा गौरव प्रदान किया है। अत. वे एक बहुत ही बडे आचार्य थे, इस कथनमें अब कोई सन्देह नहीं रहता। प्रस्तुत कृति भी उनके